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मेरु मंदर पुराण
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अर्थ - प्रथम समय में अपनी पर्याय का नाश होना देखकर भविष्य में उत्पन्न होने वाली पर्याय को कहना और अनादि काल से परंपरा से चली हुई वस्तु को नहीं कहना चोर वर्तमान और भविष्य की बात कहना श्रागम के विरुद्ध है । यदि क्षणिक कहेंगे तो आगे की बात कैसे कह सकता है। इस कारण प्रत्यक्ष विरोध है || ६४९ ॥
सित्तमुन्नंदु पिन्नंदु तत्तमि । लत्तियंतं वेरागुरिर् सोन्नदा ॥ मति यंतम् वेल्लवे याय विडि । नित्त मोटिना निड्र डोंडू न् मं यात् ।। ६५० ।
अर्थ- -मन में भविष्य की वस्तु का बार बार स्मरण करना यह सब उस विषय के लिये परस्पर विरोध आता है । और यह वस्तु परस्पर प्रापस में संबंधित है, ऐसा कहने से उस संबंध में विरोध नहीं आता है । इसलिए वस्तु नित्य है और अनित्य है, प्रत्येक द्रव्य या वस्तु नित्यानित्य है ऐसा कहने में विरोध नहीं आता है। क्योंकि वस्तु व्यवहारनय से प्रनित्य है और निश्चयनय से नित्य है । ऐसा कहने से वस्तु प्रतिपादन में बाधा नहीं पाती है ।। ६५० ।।
प्ररिव नाम किरं मरियं मेरिण । लरिव नामवन् यार्कोलरदिलोम् ॥ नेरि नाट्रव शैयिवु निड्रोडिया । नरिव नॅड्रिडि लांगव निलये ॥ ६५१ । । .
अर्थ- ज्ञानी प्रागे पीछे दोनों समय को जानता है— प्रत्येक क्षरण में ऐसा यदि कहते हो तो क्षरण २ में जीव कैसे नष्ट हो जाता है, यह समझ में नहीं प्राता और तपश्चरण करने वाला साधु अधिक दिन तक कैसे टिक सकता है ? नहीं टिक सकता है । इसलिए वह ज्ञानी साधु तुम्हारे मत के अनुसार प्रनित्य है ऐसा कहना आपके मतानुसार गलत है । और तुम्हारे मत के लिए ही यह बाघा है । इसलिए प्रत्येक वस्तु का उत्पाद व्यय घ्रौव्य मानना विरोध का परिहार है। क्षणिक बौद्धमत वाले जो कहते हैं कि वह सत्य है तो इससे नित्यत्व एकांत मत में दूषरण है । इसलिये जो वे क्षणिक एतांतवादी कहते है वह सिद्ध पौर कल्याणकारी है। उनके मत के निराकरण के लिये तथा ऐसे मत बालों के लिये प्राचार्य, समंतभद्र प्राप्तमीमांसा के श्लोक ४१ में कहते हैं:
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"क्षणिकांत पक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्यसंभवः । प्रत्यभिज्ञाद्यभावान कार्यारम्भः कुतः फलम् ॥
क्षणिक एकांत का पक्ष में भी परलोक, बंध मोक्ष प्रादि का मानना असंभव होता है । क्योंकि पहले तथा पिछले समय में जो प्रवस्था होती है उसका जोडरूप ज्ञान तथा स्मरण ज्ञान मादि के प्रभाव से कार्य का प्रारंभ संभव नहीं होता। कार्य के प्रारंभ बिना पुण्य पाप
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