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मेरु मंदर पुराण
[ २८५ भिन्न पदार्थ द्रव्य,गुण, कर्म यह संबंध रूप नहीं होता है । जिससे परस्पर अपेक्षा रहित सर्वथा भेद माना है। इससे यह सिद्ध हुआ कि परस्पर अपेक्षा बिना सामान्य समवाय और अन्य पदार्थ यह तीनों ही आकाश के फूल के समान अवस्तु हैं । वैशेषिक ने कल्पना मात्र वचन जाल किया है । ऐसे कार्य-कारण, गुणगुणी, सामान्य-विशेष इनके अन्यपने का एकांत भेद एकांत की तरह श्रेष्ठ नहीं ॥६५८।।
मरित्तदु विदुवेन उनर मन्वनर । वरक्केडु मनित्तदुळिलं यानि ॥ लरक्केड वेट्रिन विळक्के यदेनु ।
मरित्तुनर् अनर् वदं मयक्क मागुमे ॥६५६।। अर्थ-एक वस्तु को देखकर पुनः कई दिनों बाद वह वस्तु देखने में आती है वह प्रत्यभिज्ञान, है, जो सर्वथा अनित्य है । ऐसा तत्वशास्त्रों में देखने में नहीं पाया और अंधेरे में यदि दीपक को लाकर रखा जावे और उजाले को कहे कि यह दोपक है तो भ्रम उत्पन्न होता है ॥६५।।
तम्वियन देशमे काल भावमेन् । रब्वियम् पिडितंद विळक्कि देंडळु ॥ मेव्वर्ग युस केडि निदुव देंडुळु ।
मध्वदु मिदुविन पेररिव मिल्लये ॥६६०॥ अर्थ-इस संबंध में जैनाचार्य कहते हैं कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार वस्तु नित्यानित्य है, उसी प्रकार दीपक हमेशा रहता ही है-ऐसा कहने वाले प्रत्यभिज्ञान अनित्य है। पहले दीपक था ऐसा कहने वाले वह दीपक अनित्य है । ऐसा तुम्हारे मत के अनुसार शास्त्र में नहीं है । इसलिए वस्तु हमेशा नित्यानित्य है ।।६६०।।
अंड नाम पिरिदन मडिकडा मिव । रिड वंदारेन उरैत्ति यावरं ॥ सेंड्ररि दिरंजुव देवरि विना ।
लोंड, निड्रिडा वगै युरैक्कु नलिनार् ॥६६१॥ अर्थ-सर्वथा अनित्य ऐसा कहने वाले मत की अपेक्षा में विचार करके देखा जाये तो वस्तु अनित्य ही मानने से कल मैंने अमुक मनुष्य को देखा था यह कैसे संभव है ? क्योंकि सर्वथा अनित्य ऐसा कहने वाला वह वस्तु अनित्य होने के बाद यह मनुष्य कल देखा था यही कहना असाध्य नहीं है । इस कारण स्वपर द्रव्य चतुष्टय की अपेक्षा से नित्यानित्य है ऐसा तुम्हारे मत से सिद्ध होता है पौर स्वद्रव्य की अपेक्षा से कल देखा हुमा मनुष्य यही है ऐसा कहना तुम्हारे मत के अनुसार सिद्ध नहीं होता है । यदि पाप ऐसा कहोगे कि वस्तु सर्वथा पनित्य है, यह किस ज्ञान के द्वारा कहते हो? ॥६५॥
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