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मेरु मंदर पुराण
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स्वरूप नहीं बने है जैसे जीना और मरना इन दोनों में विरोध है । यह एक स्वरूप नहीं होता है । विरोध दूषण के भय से प्रवक्तव्यैकांत मानना यह भी प्रयुक्त है । इसी कारण "अवाच्य” है । ऐसी उक्ति कहना भी उचित नहीं। ऐसा कहने से प्रवक्तब्यपने का एकांत तो रहा नहीं । अवक्तव्य शब्द से तो वक्तव्य हो गया ।
इस प्रकार नित्य आदि एकांत विरुद्ध ठहरा । अनेकांत की सिद्धि हुई । शून्यवादी के आशय को नष्ट करने के लिये तथा अनेकांत के ज्ञान की दृढता के लिये स्याद्वाद न्याय के अनुसार नित्यानित्यवादी आचार्य कहते हैं || ६६६।।
वैय्यत्तु वोर्ते केल्लाम् वाचिय पिल्लमागिल । पोय्यता सुरकि कंड्रार् गळा वरिप्पूतलत्तारू ॥ मे यत्ता नलु सोल्ला दुनर्मु बेरादल वेडुम् । वैयत्तु वळक्कु लोडि वनु माराई नाने || ६७०॥
अर्थ- - इस जगत् में कहने में आने वाली ऐसी कोई वस्तु ही यदि न हो तो संसार में रहने वाले सभी प्राणियों के वचन ही असत्य हो जायेंगे । और शास्त्र में कहे जाने वाले सभी शब्द प्रवाच्य होंगे। इस प्रकार प्रवाच्य होने से प्रवाच्य मत के कहने के अनुसार तो भागम के सभी विषय विरुद्ध होते हैं ।। ६७० ।।
गुरण गुरिण वेरे येन्निर् कूडिय मुडि विट्रागु । मुनर् वोड काक्षियादि युयिरिन् वेरळवु मागं ॥ गुरण गुरिण तन्मं यॅड्रि कुळु वलुं पिरिवु मागु ।
मुनरं बिडा दुइरिकिकु मोरो वळि कुरिणयु मंड्राम् ॥ ६७१ ॥
अर्थ - तुम्हारे मत के अनुसार गुरणों से युक्त वस्तु को यदि भिन्न कहा जाय तो वस्तु दूसरे स्थान से आकर मिली है-ऐसा कहना पडेगा । यदि ऐसा कह दिया जाये तो प्रात्म- गुणों से मुक्त ग्रात्मा में रहने वाले दर्शन और ज्ञान गुण भिन्न हैं ऐसा मत तुम्हारे से भिन्न होगा । इस प्रकार गुणी और गुरण भिन्न है, ऐसा कहते हैं इस तरह कहने से संसार में जितनी वस्तु है, उनकी तुम्हारे मत के अनुसार कोई भी स्थिति नहीं होगी । प्रत: यह कहना पड़ेगा कि संसार में गुरण रहित कोई भी वस्तु नहीं है ।।६७१ ॥
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मयक्कमे से मार्वमां बंद कारनंग ।
ईर् परिणाम मिट्टि योळिय मोइ कट्टु थोडं ॥ कक्क मिनिले इट्रागि कयत्तिर्ड कल्लु पोलास् । बियप्पुरु तबसि नालेन् पेरुवदु वेरेन् बारेल् ॥६७२॥
अर्थ- गुण मौर गुणी दोनों भित्र २ हैं, यदि ऐसा कह दिया जाय तो रागद्वेष
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