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मेह मंदर पुराण
[ २७३ स्तवन आगम के प्राश्रय है । इस स्तवन का हेतु देवों का मागम विभूति सहित है तो यह हेतु भी पागम प्राधित है। यह विभूति ऐसी है कि प्रतिवादी को तो प्रमाण सिद्धि नहीं देती है। सबसे पहले देवागम आदि को देखे बिना कैसे माने ? और प्रागम प्रमाणवादी के यहां भी माया आदि से प्रवर्तन करने वाला है सो इसको कैसे साधे ? पुनः प्रमाणवादी कहते हैं कि जो सच्चा देव पागम मावि विभूति सहितपना भगवान में है वह मायामयी में नहीं है इसलिये वही हेतु (कारण)हो, यह विचार ठीक नहीं। इस प्रकार तुम कहोगे तो भी सच्ची विभूति भगवान के प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध नहीं होती। प्रागम से यदि कहा जाय तो प्रागम प्रमाण है । इसलिए इस हेतु से भगवान आप सिद्ध नहीं होते हैं । सिद्ध भगवान मुझे पूछते हैं कि जो अंतरंग व बहिरंग शरीरादि मोह जो हमारा है दूसरे का नहीं है इसलिये हम स्तुति करने योग्यहैं । इसी प्रकार मेरी स्तुति करना चाहिये पुनः प्राचार्यकहते हैं:
"अध्यात्म बहिरप्येष विग्रहादिमहोदयः ।
दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्वप्यस्ति रागादिमत्सु सः ।२।(मा.मी.) __ अध्यात्म अर्थात् आत्माश्रित, शरीराश्रित अंतरंग शरीर प्रादि का महान् उदय, पसीना आदि मलका न आना बाह्य देवों द्वारा किये हुए गंधोदक वृष्टि, विध्यपना ये बातें सच्चे मायामयी में नहीं पाये जाते हैं । चक्रवर्ती आदि मनुष्यों में यह दिव्य शरीर नहीं रहता। फिर भी हमारे द्वारा स्तुति करने योग्य आप नहीं हो सकते हैं। इस हेतु से भगवान माप हमारे स्तुति करने योग्य नहीं हैं। अंतरंग और बहिरंगपना सच्चे इन्द्रजाली में नही पाया जाता बल्कि कषाय रागादि सहित स्वर्ग के देवों में पाया जाता है। इस कारण माप स्तुति करने योग्य नहीं है।
जो भगवान के घातिया कर्मों के नाश से ऐश्वर्यपना है, वैसा रागादि सहित देवों में नहीं है । इसलिये हमारी स्तुति करना चाहिये। पर भगवान के घातिया कर्मों के नाम से उत्पन्न हुप्रा केवलज्ञान तो साक्षात् दीखता नहीं यह पागम आश्रित है।
इसके अलावा अन्यवादी जो प्रमाण सम्प्लव को मानने वाले अनेक प्रमाणों से सिद्ध मानते हैं । यह पागम प्रमाण से सिद्ध हुआ। इसमें कौनसा दोष है ? प्राचार्य इसका उत्तर देते हैं कि ऐसा प्रमाण सम्प्लव इष्ट नहीं है। प्रयोजन विशेष जहां होता है वहां प्रमाण सम्प्लव इष्ट है। पहले सिद्ध प्रामाण्य प्रागम से सिद्ध हुमा तभी उसके हेतु को प्रत्यक्ष देखकर अनुमान से सिद्ध करें, पीछे उसको प्रत्यक्ष जाने। वहां प्रयोजन विशेष होता है। ऐसे प्रमाण सम्प्लव होता है। केवल पागम से ही अथवा प्रागमाश्रित हेतु जनित अनुमान से प्रमाण नही। फिर काहे को प्रमाण सम्प्लव कहना। ऐसे २ विग्रह ऐश्वर्यों से भी भगवान परमात्मा नहीं माने जाते हैं । फिर भगवान्, संमत भद्राचार्य को कहते हैं कि हमारा तीर्थकर सम्प्रदाय है। मोक्ष मार्ग स्वयं धर्म तीर्थ को हम चलाते हैं। इस कारण हम स्तुति करने योग्य हैं । इसका प्राचार्य उत्तर देते है:
"तीर्थकृत्समयानां च परस्परविरोधतः । सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद्गुरुः ।। (प्रा.मी.)
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