________________
२४८ ]
मेरु मंदर पुराण
पर्शबनुम तनकुत्ताने पावंगळ् पयिड, सोल्लि । नगैय्यम नंबुताने नल्विनै केदु वाइर् ॥ पगेयुर विरंडुम पाव पुणिय वयंगळाद ।
लिगन मदयानै पादळिरंडिनु तेळिद दंडो ।५५८। अर्थ-शत्रु परिणाम से युक्त जीव के अपनी आत्मा के प्रास्रव करने वाले कार्य को करने से उस जीव को पाप का बंध होता है और शुभ भाव को प्राप्त होने वाले कार्य करने से पुण्य बंध का करने वाला शुभास्रव होता है। सम्पूर्ण जीवों पर दया करने से शुभ परिणाम होते हैं। अन्य जीवों के प्रति द्वेषभाव होने से विरोध के कारण पाप बध होकर हमेशा पाप का कारण होता है। महान बलिष्ठ अशनीकोड नाम का हाथी सर्प के द्वारा काटे जाने से शांत भाव को धारण कर उत्तम देवगति को प्राप्त हुआ। और कुक्कुड नाम के सर्प को द्वेष भाव तथा दुष्परिणाम से तीसरे नरक में जाना पडा ।।५५८।।
वारि युळवे कैमा वलइड पटु मुईव । नीळर नायनल्ल विनयदु निड पोदिर् ।। कोळरि येरु तन्ने कुरु नरि येनुं कोल।
नीळर नाय नल्ल विनयदु नीगि नांगे ॥५५६।। अर्थ-अत्यन्त भयंकर सिंह, सियार, भालू, बलवान हाथी आदि यदि मनुष्य के सामने आ जाये तो पूर्वभव के पुण्योदय से बच जाते हैं। यदि पूर्वभव का पुण्य संचय न हो तो नहीं बच सकता। इसी तरह यदि पाप कर्म का उदय आ जावे तो मामूली गीदड भी उस को मार सकता है ।।५५६।।
तीगति मेलवि नै नीकि सिंदै इन् । नोकिला पोरुळेयु नौकि ईबत्तै । वीकि यिम् माट्रिनै नीकि वीटिने ।
याकुनल्लरत्तिनै यमरं दु शैमिने ।।५६०॥ अर्थ-मन, वचन, काय के शुभ परिणाम से तिर्यंच गति, नरक गति में ले जाने वाले अशुभ परिणामों को त्यागकर मतिज्ञान,श्रुतज्ञान को प्राप्तकर, स्वसंवेदन नाम के प्रत्यक्ष अनुभव के द्वारा प्रात्मस्वरूप को उत्पन्न करते हुए तथा इस संसार सुख को रोकते हुए तथा
सार सूख को उत्पन्न करने वाले रत्नत्रयरूपी अात्म धर्म की शांति व प्रेम से सभी जीव पाराधना करने से संसार दुख से छूट कर अत्यन्त सुख की प्राप्ति करते हैं। अत: हे भव्य जीव! यदि तू संसार बंध से छूटना चाहता है तो सम्यक्ज्ञान पूर्वक सम्यकदर्शन, ज्ञान, चारिव धर्म की पाराग्रना कर । ताकि सहज ही मोक्ष सुख की प्राप्ति हो जाय ।।५६०।।।
इति-सिंहसेन, रामदत्ता, सिंहचन्द्र, पूर्णचन्द्र मुनि को देव गति को प्राप्त करने वाला पांचवाँ अधिकार समाप्त हुआ।
इस ससारख
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org