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मेरु मंदर पुराण
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सिद्ध भगवान का सतत ध्यान करते हुए मन में यह भावना भाते थे कि हमको म किस बात की परवाह है ? जैसे सिद्ध भगवान का ध्यान करने वाले जीव ऐसी भावना भावे हैं कि सतत हमें सिद्ध भगवान के ध्यान में रहने से जैसा लोहा गलने से सिद्धरस हो जाता है उसी प्रकार हमारा प्रात्मा शुद्ध है । ऐसा मानकर मानन्द में रत रहते हैं ।। ५५४ ।।
अंजिर पथरुळि येरिवनानया । लंजिरंडडि नडंदिरेंज लल्लदु ॥ अंजि वंदोरु वर तम्माने इरुसेला । रंजोला रिन्मया रगर्नाल्लदिरर् ॥५५५॥
अर्थ - अत्यंत सुन्दर स्त्रियों का संसर्ग अथवा काम सेवन की इच्छा न होने से वह ग्रहमिंद्र देव हमेशा बालब्रह्मचारी रहते हैं। जहां भगवान के पंच कल्मारणक महोत्सव पूजा उत्सव श्रादि २ कल्पवासी देवों द्वारा करते समय वे देव अपने अवधिज्ञान द्वारा जानकर नीचे उतरकर सात पेंड जाकर परोक्ष में भगवान को नमस्कार करते हैं; किंतु वहां तक नहीं जाते हैं ।। ५५५ ।।
इवमे इडैयर वेळूद लल्लवु ।
बमं कवलयुं तोगे येन्नवर् ॥
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कन्नु नंबर मिला वर्गामदित्तवन् । सुन्नु पिन पाळदेवा मूर्ति यायिनान् ।।५५६॥
अर्थ --- अहमिद्र को अल्प सुख के अलावा और अधिक कोई सुख नहीं है और स्त्रियों को देखने की इच्छा तथा उनका स्मरण भी नहीं होता। इस प्रकार उस नवत्रैवेयक में जन्मे हुए महमिंद्र देव प्रायु के अवसान तक शरीर व मानसिक सुख का अनुभव करने वाले होते हैं ।
।। ५५६ ॥
प्र तवं पौर दिय शीलमादिया । ट्रिरु दिय मालव देव राईनार ॥ पेरु तुयर, बिलंगोट्रि बिनेइल बोळंदु पिन् । पोरु दिना निरयेत्तु बूति पोगिये ।। ५५७।।
अर्थ -- इस प्रकार श्रेष्ठ देवपद होने का कौनसा कारण है ? प्राचार्य बतलाते हैं कि श्रेष्ठ तप अथवा निरतिचार व्रतों के पालन करने से जैसे राजा सिंहसेन, सिंहचन्द्र मुनि, रामदत्ता माविका तथा पूर्णचन्द्र ये चारों श्रेष्ठ देवगति को प्राप्त हुए ; उसी प्रकार निरतिचार व्रतों के पालने व श्रेष्ठ तप करने से देवगति प्राप्त होती है । और पाप कर्म के उदय से शिवभूति नामक मंत्री का जीव सर्प, चमरी मृग, और कुक्कुड सर्प होकर मरकर तीसरे नरक में गया ।। ५५७ ॥
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