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मेरु मंदर पुराण
नागते सूळ नागरौप्पोल मिकुं । नागरी विलंगि नागं नागसे चूळ व वांगु ॥ नागत्तै यडेंद नागर नागरौ यॅड. मन्नार् । नागत किरैव वेंड्रा मागल, किरंबन ट्राने ।। ५७७।।
प्रथं - लांव कल्प के आदित्य देव ने धरणेंद्र से पुनः कहा कि हे भवन के अधिपति ! विजयार्द्ध पर्वत के चारों ओर काले मेघ के समान बड़े २ हाथी रहते हैं । औौर जाही जूही के फूल के समान बेल चारों मोर वहां फैली हुई है। उस पर्वत में जन्म लेने वाले देवों को उसको छोडकर जाने की इच्छा नहीं होती है ।। ५७
मरुविला पळितिर पाय्वं मरगत कविरं मान्ग । लरुगरण करित कान नीरन सेल्व पोलुं ॥
बेरिमलर् दुबंद नील मलिलल बगले बंडू. 1 कुरुगु वर कुबळं बट्ट में कोल बळं नारे ।। ५७८ ।।
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अर्थ - उस पर्वत की पृथ्वी स्फटिक मरिण में जैसे मरकत का पत्थर जोडा गया हो और जोडने से उसके प्रकाश को देखकर वहां के रहने वाले हरिण, इस को हरा भरा घास समझ कर खाने को दौडते हैं अथवा इसको पानी समझकर पीने को दोडते हैं । उसी प्रकार बहां की भूमि प्रत्यन्त शोभायमान है । और उस नीलर्माण रत्नों से युक्त भूमि को देखकर वहां रहने वाली स्त्रियां प्रत्यन्त आतुरता से मानो पानी का सरोवर है ऐसा समझकर वहां जाकर देखने लगती हैं ।। ५७८ ||
वेळ मुम्मद बिळं तेरलुं । बाळंइन् कनियुं सुळयुं मळाय् ॥ बीळं वेळ्ळरु वित्तिरळ् बेदिन् । सूळ माळ मुळंगुव दु: खुमे ॥ ५७६ ॥
अर्थ - उस विजयार्द्ध पर्वत से उत्पन्न होने वाला पानी कैसा है सो बताते हैं । जैसे हाथी के कर्ण मल, कपोत मल जैसा उत्पन्न होता है उसी प्रकार उस पर्वत में पानी के भरने निकलते हैं । और पर्वत की चोटी पर से पानी के गिरने की बडी कलकलाहट की आवाज होती है ।। ५७६ ।
वरुडपाय वेळ मरिणत गळ् । कविर गळा येळिल बाने सेरिजन ।। मरि थिय मानिदि यालि मलं मिशं । इरुतु नीळ, बिळ तोंड्डु पोंड़वे ।।५८० ॥
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