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मेरु मंदर पुराण
, [ २६५ और अमृत के समान हैं । जैसे मनुष्य खड्गधारा में लगे हुए मधुविदु के लोभ से उसको जीभ से चाटता है और उसकी धार से जिह्वा कट कर खून निकलता है उसी प्रकार जिह्वा इन्द्रिय के लोभ के कारण ऐसा करने से साता कर्म मधु की बून्द है और असाता कर्म खड्ग की धार के समान है । श्री उमास्वामी ने तत्वार्थ सूत्र में कहा है:
"प्राद्योज्ञान-दर्शनावरण-वेदनीय-मोहनीयऽऽयुनर्नाम-गोत्रांतरायाः ॥
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय ये पाठ मूल प्रकृतियां हैं।
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय,अन्तराय ये चार घातिया कर्म हैं । क्योंकि जीव के अनुजीवी गुणों को नष्ट करते हैं। प्रायु, नाम, गोत्र और वेदनीय ये चार अघातिया कर्म हैं । जलो हुई रस्सी की तरह इनके रहने से भी अनुजीवी गुणों का नाश नहीं होता। अब जीवों के उन गुणों को कहते हैं जिनको कि कर्म घातते हैं।
केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतवीर्य और क्षायिक सम्यक्त्व तथा क्षायिक चारित्र और क्षायिक दानादि इन क्षायिक भावों को तथा मतिज्ञान प्रादि (मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्यय) क्षायोपशमिक भावों को भी ये ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्म घातते हैं। अर्थात् ये जीव के सम्पूर्ण गुणों को प्रगट नहीं होने देते। इसी वास्ते ये घातिया कर्म कहलाते हैं ।
अब प्रघातिया कर्मों का कार्य बताने के लिए पहले आयु कर्म का कार्य बतलाते हैं।
कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ और मोह अर्थात् अज्ञान, असंयम तथा मिथ्यात्व से वृद्धि को प्राप्त हुआ संसार अनादि है। उसमें जीव का अवस्थान रखने वाला प्रायु कर्म है। वह उदय रूप होकर मनुष्यादि चार गतियों में जीव की स्थिति करता है। जैसे कि काठ(खोडा) जेलखानों में अपराधियों के पांव को बांध रखने के लिये रहता है, अपने छेद में जिसका पैर प्रा जाय उसको वाहर नहीं निकलने देता। उसी प्रकार उदय को प्राप्त प्रायु कर्म जीवों को उन २ गतियों में रोक कर रखता है ।
अब नाम कर्म का कार्य कहते हैं:
नामकर्म, गति आदि अनेक तरह का है। वह नारकी वगैरह जीव की पर्यायों के भेदों को, तथा जीव के एक गति से दूसरी गति रूप परिणमन को कराता है। अर्थात्
ति चित्रकार की तरह वह अनेक कार्यों को किया करता है। भावार्थ-जीव में जिनका फल हो सो जीव-विपाकी पुद्गल में जिनका फल हो सो पुद्गल-विपाकी, क्षेत्र-विग्रह गति में जिनका फल हो सो क्षेत्र-विपाकी तथा च शब्द से भव-विपाकी । यद्यपि भव-विपाकी प्रायुकर्म को ही माना है; परन्तु उपचार से आयु का अविनाभावी गति कर्म भी भव-विपाकी कहा जा सकता है इस तरह नाम कर्म जीव-विपाकी आदि चार तरह की प्रकृतियों के रूप परिमणन करता है।
अब गोत्र कर्म के कार्य को कहते हैं:कुल की परिपाटी के क्रम से चला पाया जो जीव का आचरण उसको गोत्र संज्ञा
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