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मेह मंदर पुराण
mawowe - KRISILIWIhanian गति का स्वाभाविक नियम है। प्रतः आप घबरानो मत । प्रब आपकी प्राय पूर्ण हो गई है। ऐसा वे सामान्य देव समझाने लगे ||५६७॥
करणं करणंदोरं वेरा मुडंबिनै कंडु पिन्नु । मणंदुडन पिरिदं वट, किरंगु वार् मदि लादार् ॥ पुरणरंदवै पिरियं पोळ्दुं पुदिय वंदस्युं पोळदु ।
मुनरं, दुरु कवले कावळु लुळ पुगारुळ्ळ मिक्कार् ॥५६८।। अर्थ-एक एक समय उत्पन्न होकर नष्ट होने वाला यह शरीर क्षणिक और अनित्य है। ऐसे शरीर रूपी नाशवान पुद्गल पर्याय को छोड़कर जाने में यह अज्ञानी जीव घबराता है । अपने धारण किये हुए शरीर को छोडना, दूसरे शरीर को धारण करना यह पुद्गल पर्याय की परिपाटी है। यह किसी के साथ शाश्वत रूप में नहीं रहता है। इस प्रकार स्वरूप को जिसने भली प्रकार जान लिया है वह सम्यकदृष्टि हैं। एक शरीर छोडता है दूसरा प्राप्त करता है। इसी को समझ लेना सम्यक्त्व है। शरीर को छोडते समय जो दु:ख करता है वह मिथ्या दृष्टि है। परन्तु संसार स्वरूप को अच्छी तरह समझा हुआ जो सम्यक्दृष्टि है वह शरीर छोडते समय दुखी नहीं होता। वह विचार करता है कि प्रायु समाप्त होने पर शरीर को छोडना ही पड़ेगा। वे कभी भी शरीर को छोडते समय डरते नहीं है। वे विचार करते हैं कि:
"नष्टे वस्त्रे यथाऽऽत्मानं, न नष्टं मन्यते तथा । नष्टे स्वदेहेऽप्यात्मनं, न नष्टं मन्यते बुधः ।। यस्य सस्पंदमाभाति निस्पंदने समं जगत् । अप्रज्ञमक्रियाभोगं स शमं याति नेतरः ।। शरीरकंचुके नात्मा संवृतो ज्ञानविग्रहः । नाऽऽत्मानं बुध्यते तस्माद् भ्रमत्यति चिरं भवे ॥५६८।। अरं पोळिब मुंडि लादिया लिरंडु मागुम् । इरंद दर् किरंगि नालुं यादोंड म पिन्न यदा ।। पिरंदुळि पेरियु तुंबम् पिनिक्कु नल्विनय याकु ।
मरं पुरणरं दिरवन् पांद शिरप्पि नोडर्डंग उडाइ ॥५६६।। अर्थ-धर्म, अर्थ, काम इन तीन पुरुषार्थों में सबसे पहला धर्म पुरुषार्थ है । उस धर्म पुरुषार्थ से सभी इन्द्रिय विषयभोग सुख सामग्री प्राप्त होती है। इसलिये हे भास्कर देव! प्राप पूर्वभव के इन्द्रिय सुख को स्मरण करोगे तो पार्तध्यान से निंद्यगति अथवा तिथंच गति को प्राप्त करोगे। ऐसा सामान्य देवों ने उनको समझाया। अतः आप इस समय शुभ भावना । को उत्पन्न करने वाले अहंत भगवान के चरण कमलों का स्मरण करो। इससे पाप को सुभ मति प्राप्ति होगी ।।७.६६।।
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