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मेरु मंदर पुराण माकर मुझे धर्मोपदेश करके मेरी आत्मा को सुख और शांति करने वाला वही मेरा गुरु है ।
शांतमामदिये शरंदु तैय्यलायुन पयंदाळ् । कांदि तानाई नाळक् कावलन् शीय सेनन् । पांदळान् मरितुपोगि सल्लगी वनत्त कमा।
वेंदनाय मुनिय वेरिट्टि पेरसनि कोडम् ॥४६॥ अर्थ हे आर्यिका माता! तुझको जन्म देने वाली तुम्हारी माता ने शांतिमति नाम की प्रायिका के पास जाकर दीक्षा ग्रहण की थी। तुम्हारा पतिदेव राजा सिंहसेन था। वे सर्प के काटने से मरकर सल्लकी नाम के वन में बलवान हाथी हुए। वह हाथी सभी हाथियों में बलिष्ठ था। वह गजराज अनेकों को कष्ट व उपसर्ग देता था। उस वन के भीलों
का नाम प्रशनी कोड रखा था। वह हाथी मद से अधिक बलवान होने के कारण निःसंग होकर अकेला निरंकुश रूप से घूमा करता था ।।४६४।।
नागांद देन्नै काना मदत्तिनालंदनांगं । वेगांद तालिन् मेले वेगुळिया लोडि बंद ॥ तागा सेत्ति यानेढुंदे नंगु वंदेने काना।
वेगांद नेरि पुक्किन् मै कंडव नोरुव नोत्ते । ४६५।। अर्थ-पर्वत चोटी पर मैं (सिंहचन्द्र) जिस समय तपस्या कर रहा था, उस समय मुझे देखकर अत्यंत क्रोधित होकर वह हाथी मुझे मारने को प्राया। मुझे चारणऋधि प्राप्त थी, इसलिये उसके प्रभाव से मैं प्राकाश में जाकर खडा रह गया। उस हाथी ने मुझे चारों ओर देखा और न दीखने के कारण भयभीत होकर वहीं खडा रह गया ॥४६५।।
बैंकंद कडवा कूटोत्तेन्न मेलोक्किल पार्क । सिगं मा पुरत्त बेंदे शीय मा शेन प्रोनि ॥ इंगु वंदि याने यानाय पावत्तालिदनै विद्यार।
पोगि वीळ् नरगं तन्निर पोरुंद वो मुचि येडेन ॥४६६॥ अर्थ-उसी समय वह हाथी सहज ही ऊपर की ओर देखने लगा तो उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि आकाश में कोई यमराज ही मुझे पकडने खडा है । तब उस हाथी को मैंने देखकर ऊपर से कहा कि हे सिंहपुर के राजा अधिपति सुनो! तुमने असह्य पाप के उदय से जंगल में अशुभ कर्म के उदय से अशुभ तथा निंद्य पशु पर्याय में जन्म लिया है । तुम्हारा प्राचरण वर्तमान में यदि देखा जाय गे मरकर नरक जाने का कार्य कर रहा है ।।४६६॥
प्ररसनाय पेरियविंब तळूद कंदड कनाले। करिय राय पेरिय तुंवत्तऴ्द विक्कानिर कडेन ॥
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