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मेरु मंदर पुराण
तांगरुं तुंबं मुद्रान् ट्रा पार्कादलार् पिन् । ट्रींगला मींग मुझे कोंबोड़ तीईस वंशान् ।। ५३२ ।।
अर्थ - रामदत्ता मार्थिका ने अपने पुत्र पूर्णचन्द्र को उपदेश देकर जैन धर्म की ओर प्रवृत कर लिया । पूर्णचंद्र ने अपने माता के हितोपदेश को ग्रहण किया। जिस प्रकार अंधकार में दीपक रखते ही सम्पूर्ण घर में प्रकाश पडता है उसी प्रकार अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट कर पूर्णचन्द्र की भात्मा में धर्म का प्रकाश पड गया। तब सभी बात जानकर कि अपने पिता ने हाथी की पर्याय को छोडा था। और उसी हाथी के दांत व गजमोती का उसने जो पलंग व गले का हार बनाया या तुरन्त उसको तोडकर चूर २ कर दिया और जला दिया
।।५३२ ।
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पाम्मयक गुवित्त तोळ्बिर् पेदोडिं पवळ वायार् । नीरयंगुरित यामे मनलग दगं निर्प || शीर्मयंगुदिप मन्मे शेरियनन् सेरियोस् । कूर्मयंगुबिक्कु मे वेर् कुमरतुक् कुरर् कोवे ।।५३३ ।।
अर्थ- हे धरणेंद्र ! सुनो, पूर्णचन्द्र को उनकी माता का उपदेश सुनते ही उनके हृदय में पूर्व पुण्योदय से सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई । तब प्रत्यन्त सुन्दर स्त्री से तथा सर्व कुटुम्ब परिवार से मोह को त्याग दिया। संसार की सभी वस्तुओं से श्ररुचि उत्पन्न हो गई, और सम्यक्दर्शन की उत्पत्ति हो गई । सम्यक्ज्ञान सहित प्रात्मा की भोर रुचि उत्पन्न हुई ।
।।५३३ ।।
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कलयर बलगु लाई कावलिर् कळुमल् कामन् । थलं मलैयनय सेल्व नरगतु वीऴ्कु माय ॥ मलय विला मेरि बिट्ट मर्याग नार् मेरियै पट्टिन् । निलैला माट्रि निड्र सुरकु निमित्त मेंड्रान् ।। ५३४।।
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अर्थ- - इस प्रकार सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक् चारित्र के होने पर सम्यक्ज्ञान
से पुरुष ' के ज्ञान और विवेक गुरणादिक को नाश करने वाले स्त्रियों के हाव भाव विलास तथा मोह को शीघ्र ही त्याग कर दिया। उसे संसार से अरुचि पैदा हो गई। हेय श्रौर उपादेय को भली प्रकार जानकर वह पूर्णचन्द्र राजसंपत्ति विषयभोग प्रादि क्षणिक सुखों को हेय समझने लगे । ऐसी पूर्वधारणा जम गई। स्त्रियों के साथ रहने पर विषय कषाय का बध प्रबंध रूप में हो गया। मन में विचार करता है कि हे आत्मा ! क्षणिक सुख के लालच में मग्न होकर संसार रूपी समुद्र में पडकर महान दुख को सहन किया। यदि इस समय मेरी माता ( रामदत्ता प्रायिका) मुझे उपदेश न देती तो न मालूम कितने समय तक इस घोर दुख में पडा रहना पडता । इस प्रकार भगवान की वाणी में श्रद्धान करने वाला हो गया । यदि मेरी जिनेन्द्र वाणी पर श्रद्धा न होती तो न मालूम कब तक संसार सागर में पड़ा रहता । ऐसा विचार किया ।। ५३४ ।।
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