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- मेरु मंदर पुराण इमिन्दं माट्रिन ट्रन्म केटपिन् यार मिल्ल । पोंगिय पुलत्ति नीगि येरंदले पडादु पोवार् ।। शिगवेरनय काळे किवन नी सेप्पुतीमै । पंगनल्ल रत्ति नागु मेननिंदु वंदु पोनान् ।।५२६॥
अर्थ-इस प्रकार हे रामदत्ता प्रायिका माता! इस लोक में कर्म की विचित्रता महान बलवान है । जब यह कर्म की विचित्रता इस जीव को घेर लेती है तब हिताहित का ज्ञान उसको नहीं रहता। इन्द्रिय लम्पटी जीव संसार में क्या नहीं कर सकता ? सब कुछ करता है। उसको हिताहित का विचार कहां से हो? इस कारण हे माता ! सिंह के समान पराक्रमी पूर्णचन्द्र राजा को सारा वृत्तांत कह दो। ऐसे सिंहचन्द्र मुनि ने रामदत्ता प्रायिका से कहा । तदनन्तर यह आर्यिका सिंहचन्द्र मुनि को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके सिंहपुर नगर में आई ॥५२॥
मादवन पावमेट्रि मनोगर वनत्ति निड। मादरत्तोडुं पोगि यरसन मगनै कंडु ।। कादलुं कळिप्पु नींY कदैयि नै युरैप्प केळा ।
मेदिनी किरै वन शाल वेंतुइर् तवल मुद्रान ॥५२७॥ अर्थ-प्रायिका माता ने राजमहल में रहने वाले पूर्णचंद्र को देखा और बडी शांति से रागद्वेष को नष्ट करने वाले वैराग्य भावना का उपदेश ब सारा वृत्तांत कहने लगी। राजा . पूर्णचंद उपदेश सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुप्रा और धर्म के प्रति उसे पूर्ण विश्वास और श्रद्धान हो गया ।।५२७॥
मन्निनु किरव नायु यरत्तिन परंदु मुन्न ।
पुणिय मुलरंद योल्दिन विलंगिडे पुक्कु वीळं दान ।। .. विन्निनु किरव नानान विलंगि निन् ररत्त मेवि ।
येन्नलुं दादै नीयु नल्ल तींगरिंदु कोळळे ॥५२८।। अर्थ तदनन्तर वह प्रायिका पुनः अपने छोटे पुत्र पूर्णचंद को संबोधित कर कहने लगी कि आपका पिता जो सिंहसेन राजा था उसने इस राज्य को करते हुए इस भव को छोडकर दूसरे जन्म में पशु गति में हाथी की पर्याय पाई । और जब वह वन में मदोन्मत्त होकर विचर रहा था उस समय मुनि सिंहचन्द्र ने उसको धर्मोपदेश दिया और उस उपदेश से जैन धर्म को हृदय में धारण कर आयु के अवसान में शरीर छोडकर देवगति को प्राप्त हुा । इस लिये इस संबंध में अच्छा कौनसा है और बुरा कौनसा है-उस धर्म को सुनकर स्वीकार करो
॥५२८ । इलंगोळि मगुडं सूडि इरुनिल किळव नायुम् । पुलंगन मेर् पुरिनेछंदु विलंगिडे पुरिदु वीळं दान् ।।
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