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मेरु मंदर पुराण
[ २३६ विलंगिडै पुलंगडम्मै वेरुत्त बिन्नुलगिर् सेंड्रा । 'नलं कलंदारी नाय नीरिंदु कोनल्ल देड्राळ् ।।५२६॥
अर्थ-नवरत्न द्वारा निर्माण किये हुए किरीट को धारण करने वाले हे बालक ! इस राज्य के सुख वैभव को धारण करने वाले, हे कुमार ! तुम्हारे पिता इस जन्म से दूसरे जन्म में हाथी को पर्याय में हुए। किन्तु कर्मवश मनुष्य पर्याय नहीं मिली। तिर्यंच गति में जाकर हाथी होकर मनिराज से अणुव्रत ले लिया और उस व्रत का पालन करते हए धर्मध्यान पूर्वक मरकर अच्छी गति को प्राप्त किया। रत्नमयी कंठों के धारण करने वाले कुमार ! य द अच्छी गति में तुम को जाना है तो कौनसे धर्म को स्वीकार करना चाहते हो बतायो।
॥५२६॥ पट्रिनार् भूति पांबाय चमर माय कोळि पांबाम् । शत्तार् ट्रीइल वेबु नरगत्तै सेरिंदु निड्रान् ।। कोट्रवेर् कुमर नीइप्पिर वियै कुरग वंजिर् ।
शेटमुम् पट्र नीगि तिरुवरम् पुनर्ग वेंड्राळ ।।५३०॥ अर्थ- इस प्रकार वह रामदत्ता प्रायिका पुनः अपने पुत्र को कहने लगी कि हे पुर्णचंद! वह शिवभूति नाम का मंत्री इस संपत्ति के मोह से मरकर सर्प की योनि में गया। पुनः वहां से मरकर चमरी मृग हुआ । चमरी मृग की पर्याय छोडकर कुक्कुड सर्प हुअा। सिंहसेन राजा क्रोध, मान, माया प्रादि से निदान बंध करके मरकर हाथी हुमा और शिवभूति के जीव सर्प द्वारा वह हाथी काटा गया। और वह सर्प आर्त रौद्र ध्यान से मरकर तीसरे नरक में गया। इस कारण हे कुमार ! पंचेन्द्रिय विषयों में तुम लीन हो रहे हो । तुमको भी उनके समान ही गति न मिले, इस कारण तुम जैन धर्म धारण करो ।।५३०।।
अरस उन दादै युट्र तरुंद वन् शीय चंदन् । ट्रिरिविद उलग मेत्त तिरुवडि पनि केटेन । प्रोरुवि नी मरत्तै इदप्पिरप्पु नीरगुत्ति डादे । मरुव नीयरत्तै इंदमाद्दु वडविड्राळ ॥५३१॥
अथ -वह माता पुनः कहने लगी कि हे पूर्णचन्द्र ! यह मैं तुम को अपनी बुद्धि से नहीं बता रही हूं। मुनिराज से जो वृत्तांत व उपदेश सुना है वैसा ही कह रही हूँ। तुम्हारा पिता सिंहसेन धर्म को छोडकर मरकर हाथी बना और हाथी ने मुनिराज का उपदेश सुनकर अरणवत लेकर महान तप किया। और संकल्प विकल्प छोडकर उत्तम गति को प्राप्त हुआ। इस कारण विषय वासनाओं को छोडकर तुम जैन धर्म को अपनायो।।५३१॥
प्रांग व रुरत्त विन् सोलर विळक्के रिप्प उळ्ळ । नोंगियतिरुळ नींग नेरिइन सिरिदु कंडान् ।
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