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मेरु मंदर पुराण
[ २२५ मुडियुं कुंडलमुं तोडु मारमं कुळयु पूर्नु । __ कडमुं कळलुं पटु कलावमुं वीळ नूलु।
मुडनियल बागि तोडि योळि युमिळं दिलंगु मोनि ।
पडरोळि परप्प मजिर परुदिई निरुंद पोल्दिन ॥४८३॥ अर्थ-उस स्वर्ग में उत्पाद शय्या से जब जन्म लेते हैं तब वहां जन्म लेने वाले किरीट (मुकुट), मोती का हार, कुन्डल, फूलों का हार, हाथ का कुन्डल, पहवस्त्र, जरी मख. मल के वस्त्र आदि २ सोलह आभूषणों सहित सूर्य के समान प्रकाशित होते हुए. उत्पाद शय्या से उठकर इस प्रकार बैठते हैं जिस प्रकार गहरी निद्रा में सोकर कोई जाग कर बैठा हुआ है।
॥४८३॥ कारण मलगळ यारि कर्पग मरंगळ वीळं द । वारणि मरस मेंगुम मुळंग नंदन वनत्तिल ।। वेरियं दातु मेरि मंद मारुरंगळ वीस् ।
शीररिण कोंगै यार देवर सेंड सेरं दार ॥४८४।। अर्थ-उस देवलोक में रहने वाले कल्पवृक्षों से जिस प्रकार मेघ को बून्द बरसती है, उसी प्रकार फूल बरसते थे। वहां अनेक प्रकार के भेरी वाद्य आदि बाजे बजते थे। अति सुगन्ध वायु चलती थी । वहां रहने वाले सामान्य देव तथा देवियां उस श्रीधर नाम देव की सेवा करने को तैयार हो गये ॥४०४।।
येतिक्कं पाति देनो यावरो यान्विनारो । सित्ततु किनय देशं यारदो वेंडि रुंदु ॥ तत्तुंर पोदि लंद बवत्तै शारं देछंद मोदि ।
कैतल पडिगं पोल कंडदु करुदिर ट्रेल्लाम् ॥४८५।। अर्थ-वह श्रीधर देव शय्या से उठता है और चारों दिशाओं में देखकर आश्चर्य चकित होकर विचारता है कि यह कौनसा स्थान है। मैं कहां से आया हूं, ऐसा सुन्दर व रमणीय स्थान मैंने कभी नहीं देखा । ऐसी सुन्दर स्त्रियां कहां से आई । मंगल गीत गान हो रहे हैं। ऐसा विचार करते २ उसको भव प्रत्यय नाम का अवधि ज्ञान हो गया। अवधिज्ञान होते ही जैसे हाथ में प्रत्यक्ष वस्तु स्पष्ट दीखती है उसी प्रकार उसने भव प्रत्यय ज्ञान से पिछले भव का सारा हाल जानकर समझ लिया ।।४८५।।
दंतिय तुडकमाय वरिंदु यान मुन्वु शैद । मंदमादवत्तिर् पेट तुरक्क मंदारं सूळद ।। विदिर विमान मेन्नै यद्दिक्कु सूळ प्रोदि । वंदु निडिरेजुगिड़ा बार् वानवर तांगलेंडान् ॥४८६॥
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