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मेह मंदर पुराण अर्थ-महान प्रयत्न करने पर भी उस गजराज के पांव कीचड से बाहर न निकल सके । जब पानी से पांव न निकल सके तो वह वहां ही खडा रह गया । तब पूर्वभव का सिंहसेन राजा का मंत्री सत्यघोष का जीव निदान बंध करके अंगद नाम का सर्प हुमा था मोर वही सर्प मरकर चमरी मृग हुमा मौर वहां से चयकर कुक्कुड सर्प हुमा। उस समय उस कुक्कुड सर्प की कीचड में फसे हुए हाथी की मोर सहज ही दृष्टि गई। देखते ही पूर्व जन्म का यह मेरा वैरी है, ऐसा जाति स्मरण हो गया । जाति स्मरण होते ही उस सर्प ने हाथी को काट लिया। काटते ही हाथी को विष चढ़ गया ।।४७९॥
मलइने सूळं द मंजि नंजु वंदेंगुस सूळ । निलइ निर् दळदलिडि निड. माववन न् पादम् ।। तलैमिश कोंडु पज मंदिरं शिव शैदु ।
निले इला उडंबु नीगि नेरियिर् सासारं पुक्कान् ।।४८०॥ अर्थ-जिस प्रकार पर्वत मेघ के समूह के घिरने से काला दीखता है , उसी प्रकार उस कुक्कुड सर्प के विष से वह हाथी काला २ दीखने लगा । परन्तु जब प्राण छोडने लगा तब प्रातरौद्रध्यान न करके शुभध्यान से सिंहचन्द्र मुनि का ध्यान करते हुए बारहवें सहस्रार स्वर्ग में जाकर देव हुआ ।।४८०॥
प्रायुगतियु माणु पुग्वियु मक्क विक्कं । येय नल्विनैग ळल्ला युद्धंध वट्रोडुम् शेंड.॥ पाय नल्ल मळि मेल्लोर पातिव ननितु वंदु ।
मेयिनानेछंद देपोल विनयीनान् मुडित्तेढुवान ॥४८॥ अर्थ-वह देव की प्रायु, गति, नाम कर्म, प्रानुपूर्वी नाम कर्म सभी उस देव गति योग्य पूर्व जन्म में किए हुए पुण्यं कर्म के फल से सहस्रार कल्प में रहने वाले उत्पादशय्या नाम के सिंहासन में सम्पूर्ण आभूषण से युक्त १६ वर्ष के तरुण बालक के समान उत्पादजन्म को प्राप्त हुआ ।।४८१।।
माने तन्नुरुष नीगि इरवि मुर् पिरभ तोईि। वानत्त विल्ल पोल वडिवेला समैदु मूतिर् ॥ ट्रेनत्त वलंग लान पेर सीवर नेववागु ।
मानुत्त नोकिनार तस् वडिक्कनु किलक्क मानान् ॥४८२॥ अर्थ-प्रशनी कोड नाम का वह हाथी अपनी पर्याय को छोडकर सहस्रार नाम के विमान में जिस प्रकार आकाश में इन्द्रधनुष अत्यंत शुभ्र प्रकाशमान दीखता है, उसी प्रकार एक अन्तर्मुहूर्त में सर्वांग अंगोपांग को प्राप्त होकर अत्यन्त शोभायमान प्रकाशित होने लगा और महान सुन्दर रूप को धारण कर सभी को मोहित करने वाला श्रीधर नाम का देव हो गया ।।४८२॥
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