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मेरु मंदर पुराण
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और आकाश अस्तिकाय यह पांच पंचास्तिकाय हैं। छह द्रव्यों में से काल द्रव्य को छोडकर शेष पांच द्रव्य बहुप्रदेशा हैं। यह सब मिलाकर २७ तत्त्व होते हैं। इन पर श्रद्धा रखना व्यवहार सम्यक्दशन है । निश्चयसम्यक दर्शन के लिये भी ये ही साधन होते हैं । कुन्दकुन्दाचार्य ने भ्रष्ट पाहुड में गाथा नं० ३० में कहा है:
"गतये लव एवं भमिप्रोसि दीहसंसारे । इय जिगाव रेहिं भरियं तं रयरणत्तं समायरह ||
सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं । रत्नत्रय के व्यवहार और निश्चय की अपेक्षा दो भेद हैं। इनमें से व्यवहार रत्नत्रय तो इस जीव को कई बार प्राप्त हुआ है । परन्तु निश्चय रत्नत्रय की ओर संकेत करते हुए गाया में 'सुप्रलद्धो" लिखा गया है, जिसका अर्थ होता है रत्नत्रय के सम्यक् प्रकार से प्राप्त न होने से अर्थात् निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति न होने से यह जीव अनादि संसार में भटकता रहा है । ऐसा तीर्थंकर परमदेव ने कहा है । अतः हे भव्य प्रारणी ! तू उस निश्चय रत्नत्रय का अच्छी तरह आचरण कर अथवा उसका अच्छी तरह प्रादर कर । पुनः श्लोक ३१ में कहा है:
अप्पा अप्पमिरो सम्माइट्ठी हवेई फुडु जीवो । जाणइ तं मण्णाणं वरदिह चारित्तमग्गुत्ति ॥
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अर्थ- - प्रात्म-श्रद्धान में तत्पर जीव निश्चय से सम्यकदृष्टि है और व्यवहार नय से जीवादि तत्वों का श्रद्धान करने वाला सम्यकदृष्टि है । जो आत्मा को जानता है वह निश्चय से सम्यक्ज्ञान है, और व्यवहार नय से जो सात तत्त्वों को जानता है वह सम्यक्ज्ञान है । जो आत्मा में चरण करता है प्रथात् उसी में लीन होता है वह निश्चय से चारित्र का मार्ग है, और पाप क्रिया से विरत होना व्यवहार से चारित्र का मार्ग है ।। ४७१ ।।
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वेरुवुरु तुंब माक्कुं विलंगिनु ळेळंडु वोळ्दल् । नरगिडं मरुवं तुंब नरर्केलाम् कुडुंब मोंबन् ॥ मरुविय देव लोगिन् बळुत्तरल् वान वर्कान् । दुरुवमाय् निड़ तुंबम् सोन्न नगितिकु मेंड्र ेन ॥४७२ ॥
अर्थ- हे गजराज ! अनादि काल से जीव ने पंचेंद्रिय के विषय के निमित्त छल कपट करके निंदनीय नीच गति में जन्म लेकर सदैव दुःख ही दुःख पाया और हमेशा भय ही खाया। इस पाप कर्म के उदय से नरक में रहने वाले जीव को दुःख ही दुःख सहन करना पडता है । मनुष्य गति में स्त्री, पुत्र, मित्र, बंधु आदि के संरक्षण करने की चिता तथा दुख हमेशा बना रहता है । देवलोक में जन्म लेने से जब देव गति से सुख को छोडकर जाना पडता है उस समय उसको अनेक प्रकार का दुख भोगना पडता है । इस प्रकार चारों गतियों में कष्ट ही कष्ट भोगना पडता है || ४७२ ||
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