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मेरु मंदर पुरामा.श्री. कलामसागर
श्री महावीर जेन आराधना के अर्थ-इस प्रकार उस सिंहसेन राजा वे अपने भंडारी को बुलाया और प्राज्ञा दी कि राजकीय भंडार में जितने रत्त रखे हैं वे सब यहां लेकर प्रावो। आज्ञा पाते ही वह भंडारी खजाने में से अमूल्य प्रमूल्य रत्न लेकर थाली में भरकर लाया और राना के सामूख रख दिये । तदनतर उस राजा ने उसी समय निपुणमति दासी द्वारा लाए गए रत्नों को भी रत्नों में मिला दिए । राजा मिहसेन ने उस अद्रमिव वणिक को अपने कर्मचारी को भेजकर बुलवाया। भदमित्र ने पाकर अत्यंत विनय से राजा को नमस्कार किया और मंत्री के साथ अब तक जो जो बातें गुजरी वह सब बतलाऊंगा, ऐसो वणिक ने प्रार्थना की चौर सारे हालात बलिक ने बतलाये ॥२७॥
कच्चट्ट मुलइनाळंवेदनुं वरिणग कंड । विच्चेप्पि लुन् सेप्पुंडे लीयेंबुनी येन्नलोडु॥ में चेप्पु मुळिइ नानुं वेदनं वरणंगि पारा।
विच्चप्पेन मरिणचेप्पॅड्रा नेरिमरिण कडग केयान् ॥२६॥ अर्थ-लक्ष्मी के समान रूप को धारण करने वाली रामदत्ता देवी तथा सिंहसेन दोनों उस बणिक से कहने लगे कि हे भद्रमित्र श्रेष्ठी! हमारे यहां जो थाली में रखे हुए रत्नों का ढेर है इसमें जो तुम्हारा रत्न हो वो छांटकर बतलाबो और कहो कि ये मेरा रत्न है। तब उस चरिणक ने खड़े होकर राजा को नमस्कार किया और उस थाली में रखे हुए रत्नों के ढेर में से अपने रत्नों को पहचान कर निकाल लिया और राजा से कहा कि यह रत्न तो मेरे हैं और यह मेरे नहीं हैं ॥२६६
उरत्तयन् ट्रन्नै पारा मन्नन् मुन्नि वन योरु। पिरतय मिडि निडार् पित्तनेन्ना ॥ उरेत खेन्नरसु सेंड, लिलावरोट्र तुंचन।
मरकूलत्तव' नाम् कन वारिइन मंडिदं दौडाग ॥३०॥ अर्थ-तब वह राजा मन में विचार करने लगा कि यह रत्न मेरे हैं और अन्य रत्न मेरे नहीं हैं, इसकी पहचान करके इस वणिक ने अपने ही रत्न लिये । इस कारण यह वणिक महा विद्वाम व सद्गुणी है व सच्चा है । मैंने इसके गुणों को न देख कर पागल कहकर इसका तिरस्कार किया, यह मेरी महान भूल है। माज तक मंत्री द्वारा कितने लोग दुखी हुए होंगे कितनों को धोखा दिया गया होमा, कुछ नहीं कहा जा सकता। जैसे समुद्र के मध्य में जहाज के चलते समय भूचाल आ जाये तो बैठे हुए लोगों को कितना दुख होता है । उसी प्रकार इस भद्रमित्र को दुःख हुआ होगा। प्रजा का रक्षक मंत्रो होता है। यदि रक्षक ही भक्षक हो जावे तो इससे और बुरी बात क्या हो सकती है ? ऐसा मन में विचार किया। राजा राक्षसरूपेण, मंत्री व्याघ्ररूपेण, प्रजाश्वानरूपेण-यथा राजा तथा प्रजा।
अर्थ-इस कहावत के अनुसार यदि राजा राक्षस रूप धारण करेगा, मंत्री व्याघ्र रूप पारण करेगा, तो प्रजा अवश्य श्वान रूप धारण करेगी और जैसी राजा होगा वैसी प्रजा
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