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मेरु मंदर पुराण
पट्रिनै पदिनाले पदण पट्रिनार। पट ता निडुवै नीरुट परियट्ट तन्नै याकुं॥ पट्रिनै पदिलामै पट्न पट्रि नारै।
पट, विट्टिडुंब नीरुट परियट्ट मुळिक्कु कंडिर ॥३२३॥ अर्थ--राग को मन, वचन, काय द्वारा वश में करने वाले द्रव्य क्षेत्र काल, भाव व भव ऐसे पांच प्रकार के संसारी जीवों को परिभ्रमण करना पडता है और रागद्वेष से भिन्न मेरा प्रात्म स्वभाव है ऐसा विचार करने वाला सम्यक्दृष्टि ज्ञानी पंचपरावर्तन का नाश करके प्रात्म शक्ति नाम के मोक्ष सुख को प्राप्त करता है। ऐसा सम्यक्दृष्टि जीव मरण होने के बाद तिर्यंच गति में और ज्योतिष्कदेव, स्त्री पर्याय में, अल्प आयु वाला, दरिद्री, नपुसक, निंद्यकुल में विकृत शरीर आदि को प्राप्त नहीं होता। यह सम्यक् दर्शन की महिमा है।
ध्यादृष्टि जोव अपने से भिन्न पर वस्तु में अहंकार ममकार करके संसार परिभ्रमण करता हुमा अनेक दुख उठाता है, ऐसे जीव को मोक्ष की प्राप्ति होना दुर्लभ है ।।३२३॥
मोगमे पिरविक्कु नल्वित्तदु । मोगमे विनतन्नै तन्नै मुडिप्पदु ।। मोगमे मुडिवै केडनिर्पदु। मोगमे पगै मुन्न उयिर कलाम् ॥३२४॥
अर्थ-जन्म मरण रूप संसार के लिये मुख्य मूल कारण परिग्रह ही है । जिससे अज्ञानी जीव पाप कर्म उपार्जन करता है । अज्ञानी जीवों के पाप रूपी बीजभूत को उत्पन्न करने के लिये तथा मोक्ष द्वार को रोकने के लिये परिग्रह ही मूल कारण है। तथा तपश्चर्या के मूल कारण को रोकने में अनन्त सुख देने वाले मोक्ष सुख को रोकने में भी परिग्रह ही मूल कारण है। यही अनादि काल से शत्रु के समान आत्मा के साथ रहकर बंधन का कारण है। मायाचार की निंदा करते हुए प्राचार्य कहते हैं कि:
यशोमारीचीयं कनक मृगमाया मलिनिनं, हतोऽश्वत्थामोक्त्या, प्रणयिलघुरासीद्यमसुतः ।। सकृष्णः कृष्णोऽभूत् कपट बहु वेषेण नितरा, मपिच्छद्मालापं तद्विषमिव हि दुग्धस्य महतः ।।
मारीच ने स्वर्ण के मृग का रूप रामचन्द्र को छलने के लिए बनाया। इसलिए उसकी निंदा सारे जगत में फैल गई। संग्राम के समय धर्मराज ने एक बार यह घोषणा कर दी कि अश्वत्थामा मारा गया, बस इतने ही कपट के कारण धर्मसुत के प्रेमी जन उन्हें क्षुद्र दृष्टि से देखने लगे । कृष्ण ने बाल्यावस्था में बहुत से कपट वेश धरे थे, इतने ही पर से कृष्ण का पक्ष काला हो गया। थोडा सा भी विष बहुत से दूध में डाल देने से वह सारा दूध बिगड
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