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मेरु मंदर पुराण
रूपी पुत्र है, दया जिनकी भगिनी है, मन का संयम भाई है, भूमि तले जिनकी शय्या है, दिशा रूपी वस्त्र है, ज्ञान रूपी भोजन से सदैव तृप्त हैं, ऐसा जिनके पास शाश्वत कुटुम्ब है; उस योगी के पास भय किस प्रकार रह सकता हैं। इस प्रकार वे सिंहचन्द्र मुनि अपने श्रात्मस्वरूप में मग्न थे || ४२२ ॥
त्रिगळु कुदिच वेळ्कै नीकि में वसम् वर । पुणे व पोरि शेरी पुयिर कळिवु पोटू द || fat वन् दोरुक्क नेरिविळक्कमु सेयु । मनसन तवत्तिनो दरुं दवत् पोरु दिनान् ॥४२३॥
अर्थ - कर्म निर्जरा के कारण होने के निमित्त से सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके, अपने शरीर को प्रात्मध्यान का साधन हो इस प्रकार शरीर को आत्म साधन में तपाते हुए, प्राणि संयम और इन्द्रिय संयम को प्राधीन करने वाले मोक्ष मार्ग के लिये कारण होने वाले बाह्य व अभ्यतंर और अनशनादि तप को उत्तरोत्तर तपने लगे ||४२३ ।।
पुगा मिगिर् पोरि मुगु मनसनं पोरुंडिदिन् ।
नेगा उडवुडाइन पडादु नाळ्ग नीदि मादवन् ॥
पुगाविनं सुरुक्क मैयुडंपंडु पोरिगळं । मिगाविन विरुवि याव मोदुरिय मेविनान् ॥ ४२४॥
अर्थ - प्रतिदिन स्वादिष्ट आहार करने से इन्द्रिय मद की वृद्धि होती है, और विषय कषायों की वृद्धि होना कर्मास्रव का कारण है। ऐसा समझकर उत्तरोत्तर उपवास करते हुए शरीर संयम व इन्द्रिय संयम की वृद्धि करने लगे। ऐसा करने से मन आत्मध्यान स्थिर होता है । इस प्रकार सिंहचन्द्र मुनि आगम के अनुसार एक २ ग्रास आहार में कम करने लगे और अवमोदर्य तप करना प्रारंभ कर दिया ।।४२४ ।।
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इरुत्तल पोदल् निट्रल् मन्निडे किडत्तलिल्लइर् । वरत्त मंदिडा में योंवुं कायगुत्ति मादवत् ॥ तिरप्पिरं शेल् देशकाल भाव मेंल्ले सेनुं । वृत्ति संख मम् मेनुं विऴुत्तवं पोरुदिनान् ॥४२५॥
अर्थ-उठते बैठते, खडे होते तथा सोते समय पृथ्वी पर चलने वाले सूक्ष्म जीव जंतुों को बाधा न पहुँचे। इस प्रकार जीवों की रक्षा करने के लिये काय गुप्ति सहित वे मुनि प्रवृति करते थे । श्राहार के समय वह सिंहचन्द्र मुनि व्रतपरिसंख्यान तथा ईर्यापथ शुद्धि पूर्वक धीरे २ गमन करते थे । इस प्रकार वह मुनि बाह्य तप का पालन करते थे ।
भावार्थ-मुनि सिंहचन्द्र ने इन्द्रिय संयम और प्राणि संयम दोनों को मनःपूर्वक अपने अधीन कर लिया था । जीवों की रक्षा के निमित्त काय गुप्ति द्वारा वे मुनि बाह्य और अभ्यं
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