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मेरु मंदर पुराण
[ २०५ याचना, मलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान तथा प्रदर्शन परिषह ।
।।४३१॥ या कनिच्च निर्को मेळुत्तिन् मेर् पळत्त सोल्ल । वाकु निड़, मिळु मच्चोल वशत्तदां सेवियुमुळळम् ।। नोकु मप्पोरळिन् मै मै नुगंवेळु देळिवि वटै ।
याकु नल्लोळुकिर् शाल वरुदं वन् विवि शेंडान् ।।४३२॥ अर्थ-वाचना, पृच्छना. धर्मोपदेश देना, अनुप्रेक्षा तथा ग्राम्नाय इस प्रकार पांच प्रकार से स्वाध्याय करने में वे मुनि तत्पर थे। इन पांच प्रकार के स्वाध्याय करने से मन. बचन और काय स्वाधीन होते हैं। इनमें स्वाधीन होने से पंचेन्द्रिय संबंधी विषय याबीन होने से यह मन रागद्वेषादि की प्रोर नहीं जाता। इसको स्वाध्याय तप कहा है। इस प्रकार वे मूनि पांच प्रकार के तप करने में मग्न थे ॥४३२।।
प्रर्त रौतिरत्त शिदै यरवेरिदु इरै मादिर् । पेत मुत्ति कन् वैक्कं धरम शुक्किल ध्यान ।। मोत्तु डनुळ्ळ वैत्ता नुदिरं दन विनेगळ् पिन्न । .
पातिव कुमरन सिदै परममा मुनिवनानान ॥४३३।। अर्थ-प्रार्तध्यान व रौद्रध्यान के नाश करने वाले धर्मध्यान को एकाग्रचित्त से चितन करते समय उनके कर्मरूपी बंध शिथिल होने लगे । ऐसे वे मुनि कर्मों की शिथिलता हेतु धर्मध्यान में निमग्न हो गये ।।४३३।।
वंसित्त मगट्रि ज्ञान काक्षी नल्लोळक्क पेनि । मिच्चत्तं वेदनादि यगत्तिन मेल विरुष्प माट्रि ॥ वैयत्त तन काय देश मुदर पुरतन बु माट्रि।
विच्चित्ति इडि सेडान वित्सर्ग तवत्ति नोड ॥४३४॥ अर्थ-मिथ्यात्व को नाश कर सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक् चारित्र को धारण कर स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद ऐसे तीन वेद तथा छह कषाय हास्य, रति, परति, शोक, भय, जुगुप्सा और क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय आदि को वैराग्य भावों से नाश कर प्रात्मध्यान में मन को लोन करते हुए अंतरंग, बहिरंग परिग्रह का नाश करके सर्वसंघ परित्याग के साथ शरीर के ममत्व का त्याग करके उपशम भावना में लीन हो गये ।।४३४ ।
प्रडक्कनीरारु शिद यारिरंडोडु मुंड्रि। तुडिप्पर परिशै वेल्लू तोंड्रिय वोळक्कं तन्नाल ।। तडुप्पिड्रि युलग मोंड्रिर ट्रन्नेल्लै विरियं पोळदं । बडु पडा विपुल मेन्यूँ मनपर्यत्तै पेट्रान् ॥४३५॥
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