________________
मेरा मंदर पुराण
[ २०७
बाह्य परिग्रह आदि को मन, वचन, काय से त्याग कर प्रत्यन्त घोर संयम भार को धारण कर दुर्द्ध र तपश्चरण में लीन रहने वाले प्राप ही हैं। इस कारण मैं आपके चरणों में नमस्कार करती है ||४३८।।
कांबेन तिरंडु मंद रुळ्ळत्तै कनट्र मेट्रोळ् । पाँबिन तुरिये पोल पसे यट्र तिरे यक्कंडुं || तेंबलिल मुळिइनादं तिरत्त ळि वेरुतु पोंडु |
ु
कांबुर्ड पडवि सेरं व कावल पादम् पोट्रि ।।४३६।
अर्थ - हे मुनि ! प्राप तरुण पुरुष को प्रथवा मन को चलायमान करने वाली स्त्री का रूप देखकर उनके गुण व दोषों को भली भांति त्याग कर जंगल में संयम पूर्वक तप करने वाले हो । इसलिए आपको बारम्बार नमस्कार हो ||४३६||
पेरिय वर् पावं सेरंद पेदैयर, शिंदपोल | करिय मेनू कोंबल कालत्तार करुप्पोळिय कंडुम || पुरवलर् सेल्वं पाकिर् र्पुवं पोलु मेंडू: ।
9
मरुविय वरसु नीच मादव पादं पोट्रि ||४४०॥
अर्थ - पवित्र ज्ञान को पाकर प्रज्ञानी लोगों का पाप नाश होने के समान अपने मस्तक. के केश श्वेत होने के पूर्व ही जैसे वर्षा में अधिक पानी पडने पर पानी का बुलबुला शीघ्र ही नष्ट हो जाता है उसी प्रकार यह वाह्य राजसंपत्ति क्षरण में नष्ट होने वाली है, ऐसा जानकर, उसको त्याग कर संयम पूर्वक धर्मध्यान में लीन होने वाले स्वामी आपको नमस्कार हो || ४४० ॥
Jain Education International
एत गुणनं इब्वारेतिय विराम दौ । पारं पगर केटु परिंगवन निरुतु पिम्नं ॥ वार्ते मुंडिरैव केळुन मादवत्तिय् रेनुं । पार्थिव कुमरन् पालदेन मुनि पगर्ग वेंड्रान् ॥ ४४१ ॥ मंगल तोळिलगळ मुद्रि मरिण मुडि कवित्त, बंदु | तिगळ् वेन् कुडं नीळर् शीय वासन त्तिरुदान् ॥ पोंगु सामरं गळ् वीस पोन्मलै कुवडु तन्निर् । शिंग वेरिव तोतान् शीय मा शेनन् मैदन् ॥४४२॥
अर्थ- -इस प्रकार रामदत्ता प्रायिका ने भावभक्ति से स्तुति करके नमस्कार करती
हुई एक और बैठकर उन मुनिराज से प्रार्थना करने लगी कि हे भगवन् ! आपके मुखारविंद पवित्र कीजिये। इस प्रार्थना को सुनकर उन सिंहचन्द्र प्रार्थिका माता एकाग्रचित्त से शांत होकर धर्मामृत का
से धर्म के चार शब्द सुनाकर मुझे मुनिराज ने कुछ धर्मोपदेश दिया।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org