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मेरु मंदर पुराण मर्थ-तत्पश्चात् पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय यह पांच स्थावर व एक त्रसकाय और स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कणे ये पांच इन्द्रियाँ
और एक मन ये सब मिलकर बारह प्रकार के इन्द्रिय संयम और प्राणि संयमों का पालन करते हुए तथा इनके साथ२ बाईस परीषहों को सहन करते हुए विपुलमति नाम के मनःपर्यय नामक अवधिज्ञान को प्राप्त हुए ।।४३५।।
शीरणि यडक्कं शदोर पट्टा काय शैल्ल । चारण तन्य पेट, माववन् शेरिकु नाळुट् ॥ पोरणि यान वेंदन पूरचंदिरन् द्रन चिदै ।
बारणि मुलैनाद वससें. मयंगु निड़े ॥४३६॥ अर्थ-तदनंतर वह सिंहचन्द्र मुनिराज बारह प्रकार के संयम से युक्त सम्पूर्ण परिः ग्रह को त्यागकर प्रात्मध्यान में मग्न होकर असंख्यात कर्मों की निर्जरा करने वाले हो गये मोर प्राकाश मार्ग से जाते समय उस सिंहपुर नाम के नगर को देखा और उस नगर के राज करने वाले पूर्णचन्द्र राजा को अपनी पटरानी के साथ विषयभोगादि में मग्न होने का सारा हाल जान लिया ।।४३६॥
इसइन मेल सून माऊ मिळय वर मुलई निब । पसैन्न मासुनमे कन्निन् पुलंगळिर् परंदु वंदु । विसईनाल नाळे विळक्किन् बोळु विट्टिलं पोंड वेंदन ।
इसयुनाळि रायवत्री मुनिय वादिरंजि ॥४३७।। अर्थ-जिस प्रकार अच्छे संगीत तथा वाद्यों में मृग प्रादि लवलीन होते हैं, उसी प्रकार राजा पूर्णचन्द्र संगीत वाद्यों में मदमस्त हो रहा था। जैसे पतंग मोह के कारण दीपक में पडकर अपने प्रारण खो देता है, उसी प्रकार राजा पूर्णचन्द्र भोग विलास में मग्न होकर काल व्यतीत कर रहा था। समय पाकर बह रामदत्ता प्रायिका एक दिन उन चारण ऋद्धिधारी मुनि सिंहचन्द्र के पास गई और भक्ति पूर्वक नमस्कार करके बैठ गई ।।४३७ ।
पुडय वर मेलिय पोंगु कडयवर सेल्वं पोल । इंडयदु मेलिय वीगि येळंदेने तिरुद कोङगै ।। कडयव रिड हर कोळडि यड व पोल् । इडयडि यडय कंडु तुरंद वेम्मिरंद पोट्रि ॥४३८॥
अर्थ-तत्पश्चात् दोनों हाथ जोडकर, जिस प्रकार एक याचक तथा दरिद्री विनय के साथ हाथ जोडकर एक धनी के पास चरणों में पड़कर अपनी इच्छा प्रकट करता है उसी प्रकार वह प्रायिका सिंहचन्द्र मुनि के चरणों में नतमस्तक होकर प्रार्थना करने लगी कि हे भगवन् ! राजसंपदा, सक्ष्मी, स्त्री, वाहन, सैन्य मादि २ बाहरी विषय तथा पंचेंद्रिय विषय
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