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मेरु मंदर पुराण
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का फल है । पुण्य की समाप्ति पर सुख क्षण भर भी नहीं ठहरता। यह वेश्या के समान है जिस प्रकार वेश्या धनिक लोगों की बगल में कभी इसके पास कभी उसके पास रहती है, उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी चंचल है । इसलिए पुनः समझो और प्रार्तध्यान व शोक को शांत करो। ऐसा माथिका माताजी ने कहा ॥३६५।।
अळूदि गीसोगन तन्नि लरिय विप्परवि यालाम् । शेळुम् पयनिळत्तिडादे तिरुवंर शेरुदु सिदै । येळदं नल्विशोदि तन्नालिडर् कडल कडंदु पटि। लदिय विनयै विल्लु मरत्त वि तमैक्क वेंडार ॥३६६।।
अर्थ-हे देवी! शोकरूपी समुद्र में निमग्न न होकर इस मनुष्य जन्म में अगले भव के लिए शांत और सुख के मार्ग का साधन करना यही तुमको श्रेयस्कर है। क्योंकि मनुष्य गति महान कठिनता से प्राप्त होती है। इस पर्याय से जैन धर्म को भली भांति समझ लो। और धर्म को समझ कर पाशा रूपी समुद्र में न डूबते हुए कर्मों के उपशम करने के लिये शक्ति के अनुसार व्रत नियम ग्रहण करो। उत्तम स्त्री पर्याय को पाकर उससे धर्म का साधन कर लेना यही ठ है। क्योंकि यह स्त्री पर्याय अत्यन्त निंद्य है। पूर्व भव में किए हए मायाचार के कारण, यह निद्य पर्याय प्राप्त हुई है। इसलिए हे देवी! इस शरीर को व्रत और तप के साधन में लगाकर इसका उपयोग करो। यह प्रात्मा अनादि काल से पंचेन्द्रिय विषयों में रत होकर संसार में परिभ्रमण करता आया है। भोगों को ही सुख मानकर जैसे चक्षुरिद्रिय के आधीन होकर पतंग आग में गिर पडता है उसी प्रकार यह प्राणो एक २ इन्द्रियों के वश में होकर संसार सागर में डूबकर महान दुख को भोग रहा है । अतः हे देवी ! आप इस शरीर से भविष्य के लिये व्रत वगैरह का पालन करते हुए नियम से साधन करो, इसी में भलाई है। एक कवि ने कहा है:
तनुवं संघद सेवेयोल मनमनात्म ध्यानदभ्यास दोल् । धनम दानसु त्जेयोल दिनमनहद्धर्म कार्य प्रवर्तने । योल्पर्वनोल्दु नोंपि मलोलिदी युष्यमं मोक्षचितने योलतिचुव सद्गृहस्थननघं रत्नाकरा धीश्वरा ! ।
अर्थ-शरीर का उपयोग मुनि प्रायिका श्रावक श्राविका की सेवा करना मन को प्रात्मध्यान के अभ्यास में लगाना, धन का उपयोग दान व पूजा में लगाना, दिवस भगवान की पूजा आदि में व व्रत विधान में लगाना तथा अपने शेष समय को मोक्ष चितन में व्यतीत करने वाला ही सद्गृहस्थ कहलाता है, और वही पाप रूपी बीज को नष्ट कर अंत में मोक्ष रूपी सामग्री को प्राप्त कर संसार में मनुष्य जन्म को सफल बनाता है। यही मनुष्य जन्म का सार है । अतः हे रामदत्ता देवी! इस पर्याय को धर्म साधन में लगाए रखना हो श्रेष्ठ है। अब आगे के लिए शुभ गति का बंध करो ऐसा दोनों प्रायिकाओं ने धर्मोपदेश दिया
॥३६६।
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