________________
मेरु मंबर पुराण
१९६] क्या है ? मुनि महाराज उपदेश करते हैं किः
wammanormonomous
-
-
विषयाशावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रहः । ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ।।
अर्थ-जो रसना इन्द्रिय के लंपट हो, अनेक प्रकार के रसों के स्वादी हो, आशा व कर्णेन्द्रिय के वशीभूत हो, अपने यश व प्रशंसा सुनने की अभिलाषा रखने वाले, अभिमानी, चक्षु इन्द्रिय के वशीभूत, भाभरण वस्त्रादि देखने के इच्छुक, कोमल शय्या सुगन्ध वस्तु, विषयों में लंग्टता प्रादि वासनाएं जिनमें हैं ऐसे साधु वीतराग मार्ग में नहीं हैं। ऐसा समझना चाहिये । ऐसे साधु सराग धर्म में लीन होकर संसार समुद्र में डूबने वाले हैं। जो विषय व भाभा के प्राधीन न हो वह साधु नमस्कार के योग्य है। जिनका विषय में अनुराग है वह मात्मा रहित बहिरात्मा है। फिर गुरु कैसा होना चाहिये:-जो बस,स्थावर जीव के घातक न हो, पाप न करते हों वे गुरु कहलाते हैं। इसके अतिरिक्त २४ प्रकार के अन्तरग व बहिरंग परिग्रहों से विरक्त हो । स्वजन धन. धान्य, स्त्री, पुत्र, घर, दास, दासो. माणक, रत्न, सोना, रुपया, शय्या, वस्त्र रूप जाति, कुल, अपयश, यश मान्यता, अमान्यता, ऊंचपना, नीचपना, निर्धनपना. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र मादि वरणं इत्यादि प्रकार के सभी बाह्य परिग्रह हैं। मिथ्यात्व, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद. हास्य, रतिं, परति शोक भय जुगुप्सा, कोध, मान, माया, लोभ, यह १४ प्रकार के अन्तरंग परिग्रह हैं। मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से जीवों के तत्वार्थ का श्रदान न होना । अतत्त्व को तत्त्व समझना, कुगुरु में गुरुबुद्धि करना, कुमागम को भागम मानना, कुधर्म को धर्म समझना, देह के रूप जाति कुल को ही प्रात्मा जानना आदि सब मिथ्यात्व है। जिस कर्म के उदय से निश्चलपना, उदारपना होकर स्त्रियों के साथ रमने की इच्छा रूप परिणाम करना पुरुषवेद है। मार्दव का प्रभाव, मायाचारादिक की अधिकता, काम का प्रवेश, नेत्र विभ्रमादि करके सुख के लिए पुरुष से रमने की इच्छा करना स्त्रीवेद कहाता है। काम की अधिकता, भंडशीलता, स्त्रीपुरुष दोनों के साथ रमने की इच्छा, जिसकी कामानि ईंटों के भट्ट के समान प्रज्वलित रहती है वह नपुंसक वेद है। हंसी का परिणाम रखना हास्य परिग्रह है । देशादिकों में उत्सुकता तथा अपने अन्दर राग उत्पन्न करने वाले पदार्थों को जो अनिष्ट लगे उसमें अपने परिणाम करना परति परिग्रह है। इष्ट का वियोग होते समय क्लेश परिणाम होने का नाम शोक परिग्रह है। अपना मरण होने से विरह का भय रखना भय परिग्रह है। घृणित वस्तुं को देखकर उसका स्पर्श करना, देखना, ग्लानि करना, दूसरे के कुल शोलादिकों में दोष प्रकट करना, तिरस्कार करना अथवा पर के असहाय रोगों को देखना, जुगुप्सा परिग्रह है। अपने व दूसरों के घात कर डालने के परिणाम तथा पर के उपकार करने का प्रभाव परिणामों में क्रूरता रखना क्रोष है। रूप, लावण्य, उच्च जाति कुल ऐश्वर्य, विद्या, रूप आदि का मान करना,दूसरे पर कठोर दृष्टि रखना मान परिग्रह है। मन में कपट भाव होकर वक्र परिणाम होना, दूसरों को ठगने के परिणाम से परिणामों में कुटिलता होना माया परिग्रह है। पर द्रव्य में चाह रूप होना, अपने उपकार के लिये सांसारिक वस्तुएं प्राप्त करने की अभिलाषा रखना लाभ परिग्रह है। यह मूल प्रात्मा का घात करने वाले १४ प्रकार के अन्तरंग परिग्रह हैं। इस प्रकार अन्तरंग व बहिरंग परिग्रहों का बिनके त्याग हो उन्ही को सच्चा गुरु समझना चाहिये ॥४११।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org