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मेरु मंदर पुराण
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बारह भावना का चितवन करते हुए मन से एकाग्रचित्त होकर शुद्ध श्वेत वस्त्र धारण कर मायिका दीक्षा ग्रहण की ॥४.२॥
परसिर कुमरन 4 पोनळ विड़ि ईदु पिन्न । पिरस निड़ राद पिडि पिरान ट्रिरु शिर प्पि यट्रि। मरै इरुदवळ सीलु मिरामै तन् नुरवै कंडु । विरै मलर् सोरिंदु वाळ ति मोंडु तन्नगरं पुक्कान् ।।४०३।।
अर्थ-उस समय पूर्णचन्द्र अपनी रामदत्ता माता को दीक्षा दिलवाकर उनके चरणों में भक्ति पूर्वक माता के वियोग में अश्रु गिराते हुए उनको नमस्कार किया । दीक्षा उत्सव पर याचक व भिक्षुओं को इच्छित दान दिया और वीतराग भगवान का पंचामृतभिषेक किया तथा पूजा स्तुति करके विसर्जन किया और लौटकर वापस घर पाया ।।४०३॥
मत्तमाल कळिरु वान्क इळंददु पोंडि राम । तत्तय पिरिंदु शोय चंदिरन् शालवाडि ॥ मुत्तनि मुलैनात मुरुषलुं शिरिय नोक्कुम् । पित्तन् वाब पट्ट नल्ल पिरसं पोट्रि रिद वंड ॥४०४।।
अर्थ-जिस प्रकार हाथी अपनी सूड में जरा सा घाव हो जाने पर महान व्याकुल हो जाता है और सूड को ऊंची ही रखता है उसी प्रकार सिंहचन्द्र राजा को माता के वियोग
न दख हा। उन्होंने अपनी स्त्री के साथ मोह छोड दिया और जो हास्य विनोद आदि करते थे-उनमें वैसे पहले के समान भाव नहीं रहे । जिस प्रकार पित्त का रोगी मीठी वस्तु को खाते ही थूक देता है उसी प्रकार राजा को भी भोगोपभोग विषय भोग आदि में अरुचि होने लगी और शनैः २ संसार भोगों से उसको विरक्तता हो गई ।।४०४।।
ईड्रदा येवं दड्रि इरंदनाळ शिरंद वन बिर् । . ट्रोंडिना नादला- पिरिविन मातुमा मुद्रा ।। नांड वर काय नंडि यनुव मामेरु वागि । तोंड, मेळ पिरवि तोरु तोडंदु वीडैदु कारु ॥४०५।।
अर्थ-यह सिंहचन्द्र इसी जन्म की रामदत्ता देवी की कुंख से पैदा हुआ अर्थात् इसी रामदत्ता देवी ने भद्रमित्र वणिक के रत्नों को दासी के द्वारा देने के कारण से उनपर स्नेह होने के कारण रामदत्ता देवी के गर्भ में आकर जन्म लिया था। सत्य है सत्पुरुष के द्वारा थोडा सा भी उपकार हो जावे तो उसका आगे बढकर बहुत उपकार हो जाता है । उस समय अल्प किया हया उपकार भी मेरु के समान सात भव तक उसकार के लिये निमित्त बन जाता है।
11४०५॥
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