________________
wwwwwwwwwwwwer
१७८ ]
मेरु मंदर पुराण प्रात्त की। इसलिये प्राचार्य कहते हैं कि सदैव करुणादान देना मनुष्य का परम कर्तव्य है ।
॥३६६। पिरविगळनंतं तम्मिर् पेट्रताय सुद्रमल्लाल । उरविग बंड मिल्ल यूनिने युंडु वाळवार ॥ मर्मलि मलंतराइतम् मक्कळं तिगिन् रारेन् ।
रिरवने ईवळुरत्ता ळिड़, तन्मगनै तिडाळ् ॥३६७॥ अर्थ-यह जीव अनादि काल से आज तक अनेक बार जन्म मरण धारण करते हए पाया है। इसकी संख्या को मेरे द्वारा कहना अशक्य है। यदि सारासार विचार करके देखा जावे तो प्रत्येक भव में एकेंद्रिय से पंचेंद्रिय तक हम भाई २, स्त्री का पति, पिता, पुत्र प्रादि २ अनेक बार होते. प्राए हैं । बंधु, बांधव, पुत्र, पिता, मामा मामी, चाचा चाची, काका ताई जो भी संबंधी हैं सभी शुभाशुभ कर्म के प्रभाव से शत्रु मित्र के रूप में हमसे संबंध रखते पाए हैं । यही हाल भद्रमित्र को माता कहलाने वाली व्याघ्री का समझना चाहिए। जिस प्रकार मानव अपनी जिह्वा के लोभ से जीव हिंसा करके अपनी लालसा की पूर्ति कर लेते हैं उसी प्रकार इस संसार में जीव इन्द्रिय-लोलुपता के कारण भक्ष्य अभक्ष्य का विचार न करके उनका सेवन करते हए पेट को कब्र बनाते हैं। यह सभी पूर्व जन्म का किया हया पाप कर्म का उदय समझना चाहिये । इसलिए सर्वज्ञ भगवान के द्वारा प्रतिपादन किया हया शास्त्रों के प्रमाण से प्राणी में हिंसा का भाव पूर्व जन्म के संस्कार से निर्माण होता है । ऐसा भद्रमित्र की माता का हाल एक इतिहास के रूप में बन गया है ।। ३६७।।
कदिनार करुदिदिल्लाम् करणयाळीयुं कर्पत् । तरविन मे लुरुमु वीळ सायं ददु पोलभायं टु ॥ . परमव पाने वेंदन ट्रेषिमेर् पट ळळत्तार् ।
ट्रिरुमगळ नैय्य रामदत्तै नन् शिरुव नानान् ॥३६८॥ अर्थ-वह भद्रमित्र उस व्याघ्रणी के उपसर्ग से मरकर पूर्वजन्म के किये हुए पुण्य के द्वारा दान के प्रभाव से तथा शुभ भावों से मरकर सिंहपुर के राजा सिंहसेन महाराज की पटरानी रामदत्ता देवी के गर्भ में पाया। वह रामदत्ता रानी कौन थी ? उस रामदत्ता ने उस भद्रमित्र पर कौनसा उपकार किया था ? इसका समाधान है कि उस भद्रमित्र वणिक के रत्नों को युक्ति पूर्वक निपुणमति दासी द्वारा शिवभूति मंत्री के भंडारी से चतुराई से मंगाकर रामदत्ता रानी को दिया था। इसी कारण अंत समय में उनके प्रेम से निदान बंध करके रामदत्ता रानी के गर्भ में वह भद्रमित्र का जीव पाया। इस संबंध में प्राचार्य कहते हैं:
क्रोधात् व्याघ्रो भवति मनुजो मानतो रासभो स्यात् । मायायाः स्त्रोधनसुखरहितो लोभतः सर्वयोनिः॥ कामात् पारापतिरिति भवेदत्र संबंधभावात् । मोहांध मोही परिजन सुता स्त्री सुता बांधवेषु ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org