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मेरु मंदर पुरारण
अर्थ
-उस मंत्री के पूर्व जन्म में किए गये पुण्य का जब तक बल था और जब वह राज्य सभा में जाता तब उस समय रास्ते में लोग उसको नमस्कार करते थे। उसकी स्तुति करते थे वही लोग आज उनके अपराध के प्रति इसको अपशब्द कहते हुए, इसके साथ मारपीट करते हैं, तथा घोर निंदा कर रहे हैं। जिस प्रकार मनुष्य यौवन अवस्था में तरुण स्त्रियों के साथ प्रेम करते हैं, वे ही मनुष्य वृद्धावस्था में उसका तिरस्कार करते हैं। वही दशा शिवभूति की हुई । इसका सारांश यह है कि तीव्र पंचेन्द्रिय में लालसा रखने वाले की क्या दशा होती है । इसके संबंध में प्राचार्य कहते हैं:
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श्राशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमरणपम् । कस्यकिं कियदायाति वृथा वो विषयैषिता ॥
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अर्थ - प्रत्येक जीव का आशा रूपी खड्डा इतना विस्तीर्ण है कि जिसमें संपूर्ण संसार यदि भरा जाय तो भी वह संसार उसमें श्ररणुमात्र के तुल्य दीखेगा । अर्थात् सभी संसार उस खड्ड े में डाल देने पर भी वह खड्डा पूरा नहीं हो सकता किंतु वह पडा हुआ सारा संसार एक प्रणु मात्र जगह में ही आ सकता है । परन्तु तो भी ऐसी विशाल प्राशा रखने मात्र में क्या किसी जीव को कुछ भी मिल जाता है ? इसलिये ऐसी आशा रखना सर्वथा वृथा है । यदि आशा रखने से कुछ मिले भी तो किसको ? आशा तो सभी संसारी जीवों को एक सी लग रही है । और प्रत्येक प्राशावान यही चाहता है कि सर्व संसार की संपदा मुझे मिल जाय । अब कहो, वह एक ही सम्पदा किस किस को मिले ? इधर यदि प्रत्येक प्रारणी की आशा का प्रमाण देखा जाय तो इतना बडा है कि एक जगत् तो क्या ऐसे अनंत जगत की संपत्ति उस गर्त में गर्क हो जाय, तो भी वह गर्त पूरा नहीं हो पावेगा । पर प्राता जाता क्या है ? केवल मनोराज्य की सी दशा है। केवल बडी २ आशा करके बैठना प्रथम श्रेणी के मूर्ख का लक्षण हैं । आशा करने वाला केवल अपनी धुन में ही सारा समय निकालता है। करता धरता कुछ नहीं । उसकी बुद्धि धर्म में भी नहीं लगती है और कर्म में भी नहीं लगती है । इसलिये धर्म कर्म बिना वह सुखी कहां से हो ? उसकी दशा एक शेखचिल्ली की सी हो जाती है कि जो सराय के द्वार पर बैठा हुआ भीतर आये हुए घोडे, हाथी, धन, दौलत वगैरह को देखकर अपनाता हुआ खुशी होता था, और रात बसेरा कर जाते हुए दिलगीर होता था । क्या उसको ऐसी केवल आशा घर के निष्क्रिय बैठने से कुछ मिल जाता था ? कुछ नहीं । यही दशा केवल आशाग्रस्त सभी संसारी जीवों की है। इसलिए आशा छोडकर निश्चय व्यवहार रूप धर्म में लगना सभी को उचित है ॥ ३२० ॥
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मायसाल से वोव्वि मदिरि वनिगरण ट्रन्न । पेयोत सुळपनि पेरु तुयर मुन्नं सैदान् ॥ मायत्तार, सेप्पुतन के पांगवम् पट्टु पिन्नै ।
पेयोत्त, सुळंडू. सालप्पेरु तुयर तानु मुद्रान् ॥३२१ ॥
अर्थ-उस मंत्री ने भद्रमित्र के रत्नों को मायाचारी से ठग कर लेकर के उस भद्रमित्र को गली २ में भ्रमण कराया । तदनन्तर रामदत्ता महारानी ने युक्ति पूर्वक उनके साथ
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