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मेरु मंदर पुराण
कारण तेरा नाम निपुणमति रखा गया है । यह नाम इसलिए आपका सार्थक नाम है। आज के दिन जो तूने यह काम किया है यह साधारण बात नहीं है । तूने यह महान कार्य किया है। जिस प्रकार किसी जीव को यमराज पकड कर ले जाता है और कठिनता से वापस देता है उसी प्रकार चतुराई से तूने यह काम किया है। तू बड़ी विलक्षण बुद्धिवाली है जोशिवभूति मंत्री के भंडारी से बुद्धिपूर्वक चतुराई से रत्नों की पेटी लाई है, यह अतीव महत्व की बात है। इस कार्य के संबंध में मैं तुझ से अत्यन्त प्रसन्न हूं। अब यह पूछती हूं कि इस कार्य के बदले में तुमको क्या पारितोषिक दूं, यह बतलावो। ऐसा रामदत्ता ने उस दासी से कहा ॥२५॥
मंदारत्तै वंदनयुं वल्लि पोल मन्नवन।। शंदार नुलयाळ वंदनगि तनक होप्पु काटु दलुं । कंदार कळिट, वेदन् कन् कय्यै मरिया कारिंगये।
चिता मरिणयो नी येडान् शिर वंडेछंद मुडियाने ॥२६६॥ अर्थ-इस प्रकार आश्चर्यकारक वार्तालाप होने के पश्चात् वह रामदत्ता रानी अपने पति सिहसेन राजा के पास गई और निवेदन किया कि मंत्री के घर पर निपुणमति दासी को भेजकर जो रत्न मंगवाये हैं वह मैं दिखाने लाई हूं। तब वह राजा उन रत्नों को देखकर महान आश्चर्य में पड़ गए और कहने लगे कि हे देवी! तुम तो महान काम धेनु के समान हो। मैंने जैसा विचार कल्पना की वह सकुशल पूर्ण हो गई । वह राजा बड़ा संतुष्ट हुवा ॥२६६।।'
मन्नवन् शेप्प काना मट्रिव नमैच्चनाग । मुन्नमेन्नरसु चेंड़ पडियिदु वेड. नक्कान् । कन्नमेन्नडे इनाळे मंदि रित्ताग वेन्न ।
सोन्न वोव्वनिगन ट्रन्न सोदित्तर कुळ्ळ वृत्तान् ॥२६॥ अर्थ-वह सिंहसेन राजा इन रत्नों को देखकर विचार करता है कि इस शिवभूति मंत्री ने इसी प्रकार अबतक कई प्रजाजनों को फंसाया होगा, मेरे राज्य में प्रजा को कितनी प्रा. पत्ति हुई होगी, कितनी संपत्ति का अपहरण किया होगा! तदनंतर यह राजा एवं रानी दोनों ने मिलकर विचार किया कि उस भद्रमित्र वणिक के रत्नों का अपहरण मंत्री ने किया सो ठीक है, वह वणिक इतने रोज तक वृक्ष पर बैठा बैठा तथा गलियों में पुकारता था। वह बिल्कुल सत्य था । हमने मंत्री के कथनानुसार उसको पागल समझा। उसको कितना दुख हुवा होगा? हमने उसके साथ महान अन्याय किया । और दोनों ने यह विचार किया कि यह रत्न भमित्र को वापिस दे देना चाहिए; किन्तु रत्न वापस देने के पहले उस वणिक की भी परीक्षा करनी चाहिए ।।२६७॥
मरिण चेप्पु नल्ल वल्ले तरुगणवंद वदिर । कुरिण पट्र मरिणय वांगिवरिणगरण ट्रण मरिणइर् कूटि । परिणत्तनन् वरिणगन् ट्रन्न येळेवकन् परिणदु निद्रा। नित्त नावळत्त सोरु पन्चगर किरव वेंड्रान् ॥२६॥
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