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मेरु मंदर पुराण
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पत्नी प्रेमवती सुताः सविनयका भ्राता गुणालंकृत, स्नेही बंधुजनः सकांति चतुरा नित्य प्रसन्नः प्रभुः। निरोगी चरपरार्थी सपना प्राप्तव्यं भोग धन, पुण्याणां उदयेण संचित फलं कस्यामि संपद्यते।
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अर्थ-सद्गुण वाली स्त्री सुबुद्धि, सुलक्षणपुत्र, स्नेही, बंधु परस्पर स्नेह करने वाले भाई. प्रौढ, मित्र, प्रजा को प्रिय राजा कपट रहित रखी द्रव्य को देकर याचकों की इस करने वाले भाई, प्रौढ मित्र को भोगने वाला धनी यह सभी को प्राप्त हो जाना पूर्व जन्म का फल है। पूर्व जन्म के पुण्य बिना यह प्राप्त नहीं होता। इस कारण उस मंत्री ने दूसरों के धन का अपहरण करके स्वयं धनवान बनकर तथा उसका सुख भोगने की इच्छा से भद्रमित्र वणिक के रत्नों का अपहरण करके अपने को सत्यघोष की पदवी को प्राप्त करके बतलाने वाला प्रजा पर विश्वास दिलाने वाला ६ शास्त्र १८ पुराण मादि का उत्तम पंडित उत्तम कुल में जन्म लिया और मैं ब्राह्मण हूं ऐसा बतलाता है कभी इस प्रकार का पापाचार नहीं कियाऐसा कहने वाला उस सत्यघोष मंत्री ने उस वणिक के रत्नों का अपहरण करके कितनी अपकीर्ति प्राप्त की है ? मंत्री को ऐसा करना उचित है क्या ? और भी कहा है कि कैसा राजा होना चाहिए
शिथिल मूल दृढ करे फूल चूट जल सींचे, उरष डरि नवाय भूमिगत ऊरघ खींचे। जो मलिन मुरझाय देखकर तिनही सुधारे, कूडा कंटक गलित पत्र बाहर चुन डारे । लघु वृद्धि करे, भेदे जुगल, बाड़ सवारे फल भखे, माली समान जो नृप चतुर सो संपत्ति बिलसे अखै ।
॥३.०11 भदिर मित्तिरावुन चित्तिर मरिण सेप्पिट्ट । मुत्तिर युन्नदागिल वैत्तिडल कोंडु पोग ॥ वत्तिर मुद्रि यान मत्तग यरुक्कु मन्न ।
मुत्तिरं येन्न देंड. वित्तग रिट्टदेडान ॥३०१॥ अर्थ- राजा सिंहसेन ने उस भद्रमित्र से फिर कहा कि इन रत्नों में जिन २ रत्नों पर तुम्हारी म्होर (सील) लगी हुई है । उनको चुन लो। इस बात को सुनकर वह भद्रमित्र राजा को नमस्कार करके बोला कि इन रत्नों पर जो म्होरें (सील) लगी हुई है वह मेरी म्होर नहीं है, किसी अन्य की म्होर है ॥३०१॥
तिरवेन तिरंदु पार्लिट् । टिरवमट्रेन वल्ला ॥
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