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मेरु मंदर पुराण
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नय कारण है और निश्चय नय कार्य है। कारण व कार्य के बिना किसी वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती। कुछ लोग धावक की षट्कर्म की क्रिया को श्रावक अवस्था में प्राडम्बर समझकर उसका लोप करके केवल अध्यात्मवाद की ही चर्चा करते हैं। कहा भी है कि:
गृहकर्मणापि निचितं कर्म विमाष्टि खलु गृहविमुक्तानाम । अतिथीनाम प्रतिपूजा रुधिरमल धावते वारि ॥रत्नकरण्ड०।।
अर्थ-सावध व्यापार से रहित, अतिथियों मुनियों को दान, निश्चय ही साधक व्यापार से उपार्जन किये हुये पाप रूप कर्म को नष्ट कर देता है । जैसे अपवित्र पानी भी खून को धोकर साफ कर देता है उसी प्रकार मुनियों अथवा उत्तम पात्रों को दान देने से गृहस्थ सम्बन्धी संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं।
भावार्थ-तपस्वियों को प्रणाम करने से उच्च गोत्र, दर्शन शुद्धि स्वरूप यथा विधि दान देने से भोग सामग्री, प्रतिग्रहण पड़गाहने आदि से प्रतिष्ठा, गुणानुरूप से उत्पन्न अन्तरंग श्रद्धा से सुन्दर रूप और भक्तामर स्तोत्र सकल ज्ञेय इत्यादि स्तुति करने से सर्वत्र कीति प्राप्त होती है ।।६६॥
घाति यु करुण इन्मै यादि यार् कट्टिनि। वेदन मुदलवेल्लाम् वेंतुयर् विळे क्कु पाव ॥ मोदिय विरंडम योगि नुपिरिने युरुदलुट्रां । दादुर काईदू पोळ दिर रानुरु नीर यो ॥१७॥
अर्थ-घाति कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले अकारण अप्रसन्नत्व अगुरुनाम राग अर्थात् दुर्ध्यान प्रवृत्ति, अत्रशस्त प्रवृति,अज्ञानवृद्धि, कुतप प्रयोग आदि से पिछले जन्म में बंधे हुये अशुभ कर्मों के योग से असाता वेदनीय आदि कर्म घोर नरक के दुःख को उत्पन्न करने वाले हैं, इसलिये इसको पाप पदार्थ कहते हैं। उपरोक्त पुण्य पदार्थ और पाप पदार्थ दोनों मिलकर संसारी जीवों को शुभाशुभ संसार के बंधन करने वाले हैं। जिस प्रकार लोहे के गोले को तपाकर पानी में डाला जाय तो वह पानी को भस्म कर देता है उसी प्रकार प्रात्मा रागी द्वेषी परिणामों को अपने में खींचकर कर्म बन्ध को प्राप्त हो जाता है।
भावार्थ-ग्रन्थकार ने यहां पुण्य और पाप का विवेचन किया है। पुण्य अनेक प्रकार के साता वेदनीय कर्म को प्राप्त कर लेता है और पाप अनेक प्रकार के संसार को प्राप्त करने वाले पाप को प्राप्त करता है । ये दोनों मिलकर संसारी जीव को पाप और पुण्य में परिणत करके दीर्घकाल तक भ्रमण के लिये कारण बना देते हैं। जिस प्रकार लोहे के गोले को अग्नि में तपाकर पानी डालने पर वह पानी को सुखा देता है उसी प्रकार यह आत्मा अशुभ परिणामों से शुभाशुभ संसार बंधन में बंधकर दीर्घकाल तक संसार में भ्रमण करता रहता है ।।१७॥
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