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मेरु मंदर पुराण उनसे वह पर्वत ऐमा मालूम होता था मानों सुगन्ध के लोभ से वह उन वनलताओं को चारों ओर से काले वस्त्रों के द्वारा ढक ही रहा हो। वह पर्वत अपनी उपत्यका अर्थात् समीप को भूमि में देवियों तथा देवों को धारण करता था। जो परस्पर प्रेम से युक्त थे और संभोग करने के अनंतर वीणा आदि बाजों को बजाकर विनोद किया करते थे। उस पर्वत के उत्तर और दक्षिण की ओर दो श्रेणियाँ थीं जो दो पंखों के समान बहुत ही लबी थी और उन श्रेणियों में विद्याधरों के शिखरों पर जो झरने बह रहे थे उनसे वे शिखर ऐसे जान पडते थे मानों ऊपरी भाग पर पताकाएं फहरा रही हों। ऐसे ऊंचे-ऊंचे शिखरों से वह पर्वत ऐसा मालुम होता था मानो आकाश के अग्रभाग का उल्लघन ही कर रहा हो। ऐसे वह धरणेंद्र उस विजयाद्ध पर्वत की प्रथम मेखला पर उतरा और वहां उसने दोनों राजकुमारों को वहां के विद्याधरों के लोक दिखलाए।
इन्हीं दक्षिण और उत्तर श्रेणियों में क्रम से पचास और साठ नगर सुशोभित हैं। नगर अपनी शोभा से स्वर्ग के नगरों को भी मात करते हैं। इस प्रकार धरणेंद्र ने उन का परिचय राजकुमारों को करा दिया और कहा कि तुमही इन विद्याधरों के नगरों के राजा बनकर इनकी रक्षा करो। इस प्रकार युक्ति सहित धरणेंद्र के वचन सुनकर राजकुमारों ने विजयाद्ध पर्वत की प्रशंसा की और फिर उस धरणेंद्र के साथ-साथ नीचे उतर कर अतिशय श्रेष्ठ और ऊंची-ऊंची ध्वजाओं से सुशोभित रत्नपुर चक्रवाल नाम के नगर में प्रवेश किया। धरणेंद्र ने दोनों कुमारों को सिहासन पर बिठाकर सब विद्याधरों के हाथों से उठाये हुए स्वर्णों के बड़े-बड़े कलशों से राजकुमारों का राज्याभिषेक कराया और विद्याधरों से कहा कि जिस प्रकार इंद्र स्वर्ग का अधिपति है उसी प्रकार ये नमि विनमि राजकुमार उत्तर व दक्षिण श्रेणियों के अधिपति हैं। अनेक सावधान विद्याधरों के द्वारा नमस्कार किये गये ये दोनों राजकुमार चिरकाल तक अधिपति रहेंगे। कर्मभूमि रूपी जगत को उत्पन्न करने वाले भगवान् वृषभदेव ने अपनी सम्मति से इन दोनों को यहां भेजा है। इसलिये सब विद्याधर राजा लोग प्रेम से मस्तक झुकाकर इनकी प्राज्ञा शिरोधार्य करें।" मादित्य देव धरणेंद्र से कहता है कि कुल परंपरा से चले हुए यह विद्युद्दष्ट्र हैं ॥२०॥
विनयर वेरिदवीरन् विदेगत्त बीत शोगम् । तनयुड वैजयंदन दुनमगनिन मुन्द्रमै ॥ किनयव नेव' मेद मनत्तिनु निनत्तिादान् । ट्रनइव शेवान वावनाइनुतडिवन फंडाय ॥२०६॥
अर्थ-जिसने कर्मों का नाश कर दिया ऐसे वह संजयंत मुनि थे। विदेह क्षेत्र के संबंधित हुए वीतशोक नाम के नगर के अधिपति राजा वैजयंन थे। उस राजा का बह जेष्ठ पुत्र है, और मैं पूर्व जन्मका उनका छोटा भाई हूं। यह संजयंत सुनि सम्पूर्ण जीवों के हित करनेवाले तपश्चरण का भार ग्रहण करने वाले हैं और विद्युद्दष्ट्र ने इनपर घोर उपसर्ग किया। इसलिए मैं विद्युद्दष्ट्र से बदला लिये बिना नहीं छोडूंगा। इस प्रकार धरणेंद्र ने मादित्य देव से कहा ॥२०६ ।
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