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मरु मवर पुगरण
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अर्थ-वह भद्रमित्र मन में बैठे २ विचार करता है कि व्यापार करके धन की वृद्धि करना चाहिये। न्याय पूवक यदि धन नहीं कमाया जावेगा तो पेट कैसे भरेगा, तथा बन्धु बांधव से प्रेम भाव कैसे रहेगा? उनका भोजन सत्कार कैसे करेंगे? यदि न्यायपूर्वक धनोपार्जन दान न करेंगे तो परपरा से चला आया गहस्थ धर्म व मनि धर्म कैसे चलेगा? और प्रागे चलकर बडा कष्ट सहन करना पडेगा। इस प्रकार वह वरिणक पुत्र व्यापार संबंधी अनेक सामग्री द्रव्य मादि लेकर रत्न नामक द्वीप में गया ।। २३६ ।।
शेंड, शात्तेड तोविन शेंद वन् । बंड़, वारिणवत्सार पेट्र रुवियम् ॥ मंड मादवर कैपिट्ट वसि याल ।
नि भोग निलं पेट बोक्कुमे ॥२३॥ मर्थ-जिस प्रकार एक सद् गृहस्थ महातपस्वी मुनि के माहार दान के फल से उत्तम भोग भूमि में जाकर उत्तम भोग भोगता है उसी प्रकार उस बद्रमित्र ने खूब व्यापार करके दान धर्म के द्वारा अधिक संपत्ति को प्राप्त किया ॥२३॥
पुग्गिय मुदयंशव जोळ दि निल। एणिलाद पोरकुर्व याययं ॥ नन्नु मेंडळ नाव नरहनु ।
कन्नले येडुत्तिन्दु बाइनान् ॥२३॥ अर्थ-बिना पुण्य के संपत्ति नहीं मिल सकती। महंत भगवान की यह वारणी है कि बो जीव माहार, औषध, शास्त्र और प्रभय ये चार प्रकार के दान उत्तम, मध्यम. जघन्य पात्रों को देता है, वह क्रम से उत्तम गति को प्राप्त होता है। प्रौद दूसरे भव में अपने मन के अनुकूल सर्व प्रकार की भोग सामग्री पाता है । इस उदाहरण के लिए भद्रमिक सेठ ही है । क्योंकि इन्होंने पूर्व भव में उदार चित्त से चार प्रकार के दान को विधि पूर्वक सत्पात्रों को देकर उनकी सेवा की थी, जिससे ऐसी निधि माज इनको प्राप्त हुई है । ऐसे अन्य कई उदाहरण मिलते हैं । पाहार दान से श्रीसेन राजा तीर्थकर पद को प्राप्त हुमा है । शास्त्र दान से ग्वाला का जीव कुदकुदाचार्य का पद प्राप्त कर श्रुत-केवली हुमा है । मभयदान में शुकर का जीव मुनि को अभयदान देकर देव पद प्राप्त करके वहां स चयकर भगवान कृष्ण को पट
मरणी का जीव पाया है। और प्रौषधदान से रोग की चिकित्सा करके श्रोकुष्प का जीव तीर्थक र पद को प्राप्त हुआ है । यह सब पूर्व जन्म के पुण्य का फल है ।।२८।
मरिणयुमुत्त वरमुं शेंदन । तुनियु नल्लगिनु तुगिरपिर ॥ मरिणयुतूरियु कोंडु वरुवमं । इनयिल शीय पुरमदै मेदिनान ।।२३।।
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