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मेरु मंदर पुराण अर्थ-वह भदमित्र श्रेष्ठी रत्न, मोती, अमूल्य द्रव्य तथा चंदन मादि अनेक सुगंपित वस्तुमों का संपादन करके रत्नद्वीप से जहाज में भरकर रवाना हुमा और अपने पट्टन में वापस पाते समय रास्ते में सिंहपुर नगर में गया ॥२३६ ।
मिक्क लाभत्तिन् मेविन सिंदयान । शक्कर बान मेनत्तिाळ मोरिणयान ॥ दिक्कनर तिगळद दोर देशिनार् ।
पुक्कनन् पुरं वंदेदिर् कोळ ळवे ॥२४०॥ प्रर्थ-उस नगर में रहने वाले व्यापारी लोग उम भद्रमित्र को देखकर विचार करने लगे कि यह तो हमसे भी वा व्यापारो है, और उसका भली प्रकार सम्मान पूर्वक स्वागत करके नगर में ले गये ॥२४०।।
अन्नगरिनळगुपेरुमयु। मन्नन मयु वारिणवत्त ताकमु॥ सोन्न वैतिर ळामयुम सोरर्दा ।
मिन्मयुं कंडिरिक्कयु मेविनन् ॥२४१॥ मर्थ-उन भद्रमित्र ने उस नगर में प्रवेश करने के बाद चारों ओर नगर में जाकर देखा कि वहां बडी २ हवेलियां हैं, लबी गलियां और रास्ते हैं, उनको देखता हमा. उस नगर में राज करने वाले राजा का गुणानुवाद करते हुए मन में यह विचार करता है कि यह नगर व्यापार के लिये बडा योग्य है, और नगर की प्रजा राजा की आज्ञा के अनुसार चलती है। इस प्रकार उसने राजा व प्रजा को प्रशंसा की। इस नगर में कोई दृष्ट चोर डाकू लुटेरा, परस्त्री लंपटी, व्यसनी व दुराचारी लोग नहीं हैं। ऐसी मन में भावना करके अत्यंत आनंदित होकर व्यापार करने के लिए इसी नगर में रहकर अपना व्यवहार बढाना चाहिये। ऐसा मन में निश्चित किया ॥२४॥
मट्रिम् मानग रत्तिलिव वान पोरळ । प्रभाग नल्लार् कैयित् वैत्त्परिण। पद्मशंडम यदैदियोर पागिले । सुटमुमळं तेन्वळि तोक्क पिन् ॥२४२॥ पोडिनार् पेयर्विंगु वदोगिय । माडमानगरत्तिड वाळ कमेल् ॥ प्रोडुमुळ ळत्तनोन् पोरुळ वैपिडम् । तेडुवान् शिरिभूतियै नन्निनान् ।।२४३॥
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