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मेरु मंदर पुराण
मुदिन ट्रनक्क मुनिक्कनायो । रेनबुरु वेरतालिवर्षी दायदे ॥ २१६ ॥
अर्थ- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पांच प्रकार के परिवर्तनों का वर्णन कितना भी किया जावे परन्तु पूरा नहीं हो सकता । यह सब शुभाशुभ कर्मों के निमित्त से होता है, इसलिए हे धरणेंद्र ! तुम इस विद्युद्दष्ट्र को छोड दो । क्योंकि संजयंत मुनि व विद्युद्दष्ट्र के पूर्व जन्म में किए हुए द्वेष या उपसर्ग के कारण इन दोनों के बीच उपसर्ग किया गया है। इसलिए तुम इस चर्चा को छोड़ कर शांतभाव धारण करो ।।२१६ ||
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प्रादलाल बेगुळिये पगं नमक्केलाम् । तीर लाम् विनेनार, ट्रीगति पयुम् ॥ कावलार, तन्मयु मोरु कतुत ळे । दिलाराकुमी विगळतबक दे ।। २१७ ।।
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अर्थ - क्रोध करना शत्रु के समान है । क्रोध करने से अनेक प्रकार के दुख उत्पन्न होते हैं, बंधु व मित्र सब साथ छोड देते हैं, क्रोध से सदैव विरोध उत्पन्न होता है । क्रोध से अनेक प्रकार की हानि होती है । श्रात्मा की दुर्गति भी इसी क्रोध से होती है। सभी मित्र बांधव माता, पिता अलग हो जाते हैं, कोई साथ नहीं देता है । यह आत्मा के लिये श्रहित करने वाला है । क्रोध नरक का कारण है। इसलिए हे धरणेंद्र इस क्रोध को त्यागना ही श्रेष्ठ है; क्योंकि क्रोधी लोगों का कोई विश्वास नहीं करता न कोई उनके समीप रहना चाहता है । इसलिए तुम क्रोध को मूल से छोड दो । किसी कवि ने कहा भी है: क्रोध तें मरे और मारे ताहि फांसी होय,
किंचित् हु मारे तो जाय जेलखाने में । जो कछु निबल भये, हाथ पैर टूट गये,
ठौर २ पट्टो बंधी, पडें शफाखाने में । पीछे तें कुटुम्बी जन हाय हाय करत फिरें,
जाय २ पांव पडे तहसील और थाने में । किंचित् हू किए तें क्रोध ऐते दुख होत भ्रात,
होते हैं अनेक गुरण एक ग़म खाने में || ॥२१७॥
मट्रिवन् शेद तीमै केतुमा मुनिबने मुन् । कोद्रव नागि संव कोडुमं शैकोपत्तियाल ॥ बेट्रिवेलुंड नीर, पोलि वेरत्तिन् वीडि । इविपिरप्पिन् वेरतिवनिवं शंदवेंड्रान् ॥ २१६ ॥
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