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मह मंदर पुराण
[६७ अर्थ-उस समय संजयंत मुनि के ऊपर जब वह विमान कोलित हो गया तो वह विद्यापर विचारता है कि यह विमान कैसे रुक गया ? आश्चर्य चकित होकर नीचे पाकर देखा तो संजयंत मुनि ध्यानारूढ बैठे हैं, उनको देखते ही जैसे किसी को भाला धुसते हो अत्यंत वेदना होती है, उसी प्रकार उस विद्याधर के हृदय में पूर्वजन्म के बैर से महा कोष उत्पन्न हो गया ॥१४८॥
कानानिड़ बेरम् कनट्र कडिदोडि । मारणानोंदि माधवर् कोरणक्कुडवंदु ।। सेना रोडुं इमान मेट्रि शेलगेंडान् ।
वेनार् वेळि ळमले इनिवट्कीळ परदत्ते ॥१४॥ अर्थ-तब उस विद्युद्दष्ट्र विद्याधर ने पूर्वजन्म में किये हुए पाप कर्म के उदय से शीघ्र ही उस मुनि को जबरदस्ती से खींचकर विमान में बिठा लिया। वहां बांस का बड़ा भारी जंगल था। उस जंगल में विजयाद्ध नाम का पर्वत था। उन संजयंत मुनिको वहां लाकर बिठा दिया। पापो दुष्ट लोग क्या २ नहीं करते हैं। अर्थात् सभी कुछ कर
सकते हैं। पूर्व जन्म में जैसा २ जिसने किया वैसा २ उसको भोगना पडता है। तब उस समय . वह मुनि मन में विचार करते हैं कि मैं इस समय प्रात्मा और शरीर को भिन्न रूप में समझ
गया हूं, इस में मेरी कोई हानि नहीं है । मैंने पूर्व जन्म में इसके साथ अपकार किया था, वह कर्मरूपी ऋण है, उसका बदला चुकाना है, और उस ऋण को यह विद्याधर यहीं पूर्ण कर ले तो ठीक है। इस प्रकार वह मुनि बारह भावना आदि का चितवन करते हुए एकत्व भावना का विचार करने लगे।
अरि मित्र महल मसान कचन काच निंदन थुति करन। अर्धावतारन असि-प्रहारन में सदा समता धरन । इसी प्रकार वह संजयंत मुनि भावना भाने लगे। उत्कृष्ट साधु के तप की महिमा:
इहव सहजान् रिपून विजयते प्रकोपादिकान् । गुणाः परिणमति यानसुमिरप्यय वाञ्च्छति ।। पुरश्च पुरुषार्थसिविरचिरात्स्वययायिनी ।
नरो न रमते कथं तपसि तापसंहारिणि ।। अर्थ-अनादि काल से साथ लगे हुए तीव्र कषायादि का इस तप के धारण करने से हो नाश होता है। यह कषायें जीव को संसार के दुख भुगताने में मूल कारण है। इस कारण यह शत्रु के तुल्य हैं। इनको वश करना या इनका दमन करना तप द्वारा ही हो सकता है, क्योंकि तप करने वालों को इंद्रियां वशीभूत हो जाती हैं। जिससे कि विषय
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