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मेरु मंदर पुराण, को उन सभी के सामने क्रोधपूर्वक विद्युद्दष्ट्र ने कहा ।।१५७।।
एमक्किवन शैव कुटुमिन ए डिगळ वेंडाम् । उयक्क मानुरुदि सोन्ने नुरत्तदुम् पिन्न मैयाम् ।। सुमक्कला मलंगळेडि शोरिंद वन ट्रन्ने कोमिन् ।
एमक्कि वन् शैव वेन्ना पिन्न यु मरिंदु कोमिन् ॥१५८॥ अर्थ-वह विद्युद्दष्ट्र पुनः उन लोगों से कहने लगा कि वह राक्षस महान दुष्ट है, उसका नाश करना है। मेरे पर विश्वास रखो। अब तुम सभी लोग मिलकर मेरे साथ चलो।
॥१५॥ प्ररक्क नेंड्रोरत्त माद सेविप्पुर तुररु मंजा। तिरत्तडि देळ , शेंड, शरोदवन पेरुमैकाना। अरक्कने इवनेंजा वरुत्तव मरिविलादार ।
वरैतिरळेदि सूळदार वानवर नथुगि इट्टार् ॥१५॥ अर्थ -उस महान दुष्ट विद्युद्दष्ट्र की मायाचारी बात को सत्य समझकर अज्ञानी सभी लोग विद्याधर से डर कर समद्र की कलकलाहट के समान अत्यंत तीव्र ध्वनि तथा महान कर व्याघ्र के समान गर्जना करते हए जहां महा तपस्वी संजयंत मनि तपस्या कर रहे थे वहां पहुँच गये । तत्पश्चात् पर्वत के बड़े र पत्थरों को उठा २ कर उन सजयंत मुनि पर बरसाने लगे। उन मुनिराज पर होने वाले उपसर्ग को देखकर वन के सभी देवों ने अपनी अपनी आँखें बंद कर ली ॥१५॥
मिन्नोड़ तोडरंदु मेगं वेडिपड विडित तोंडि। पोन्मले तन्ने सूळंदु पुलिनै पोळिवदे पोन् । मिन्नु वेळ ळे इट्टर मेलिस्करियवर वेडिप्पवातुं । कन्मळ पोळिय वोरन कनगमा मलनिडान् ॥१६०॥
अर्थ-जिस प्रकार आकाश में बिजली होती है, मूसलाधार वर्षा होती है, उसी प्रकार अत्यंत कर दांत वाले विद्याधर ने उन मुनि पर घोर उपसगं करना प्रारंभ कर दिया। ने संजयंत मुनि उस उपसर्ग को प्राया देख अपने धर्म ध्यान में तल्लीन हो गये ॥१०॥
वंद तानवर वरैयेड तेरिय मादल शलियो । निड तन्मय पोरक्क लावान् शंव वेरुप्प यादल नोक्कि । ईडिवन शैवलेविन कळिद यावर्कु मरिदागुम् । मॅड. सुश्किल ध्यानवाळे डुत्तिरल विनपगै युडकुद्रान्।१६१।
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