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मेरु मंदर पुराण
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मरुविय विनगळ माट्रा मासिमे कळ वि वीट।
तरु दलार् पुरिणद मागु तन्मे यार् पुरिणय मामे ॥६५॥ अर्थ- करुणा और समता भाव से युक्त रत्नत्रय में श्रद्धा सहित ध्यान के प्रभाव तथा प्रशस्त परिवर्तन और सम्यग्ज्ञान की वृद्धि से उपमा रहित पवित्र परिणाम भाव के द्वारा पुण्योपार्जन किया हुआ भव्य जीव के आत्म स्वरूप को प्राप्त कर पहले जन्म के प्रात्मा के साथ लगे हये कर्म समूह को नाश कर मोक्ष को देने वाला दो प्रकार का पूण्य है। एक भाव पुण्य और दूसरा द्रव्य पुण्य ।
भावार्थ-प्राचार्य ने इस श्लोक में द्रव्य पुण्य और भाव पुण्य का वर्णन किया है। दया और करुणा से युक्त रत्नत्रय सहित रुचि पूर्वक ध्यान करने वाला तथा उस परिणाम से होने वाले सम्यक्ज्ञान की वृद्धि से पवित्र पुण्यबंध के कारण से अनादि काल से प्रात्मा के साथ लगे हुये कर्म समूह को नाशकर मोक्ष को देने वाला है । यह भाव पुण्य है ।
द्रव्य पुण्य:-दर्शन अधिकार में श्री समन्त भद्राचार्य ने इस प्रकार कहा है कि:
देवेन्द्र-चक्रमहिमानममेयमानम्, राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्रशिरोर्चनीयम् । धर्मेन्द्र चक्रमधरीकृतसर्वलोकम, लब्ध्वा शिवं च जिन भक्तिरुपति भव्यः ।।
अर्थात्-श्री जिनेन्द्र भगवान का भव्य भक्त, अपरिमित देवेन्द्रों के समूह में महत्, राजाओं के मस्तक से पूजनीय, राजाओं के इन्द्र चक्रवर्ती के चक्ररत्न तथा तीन लोक को दास बना लेने वाले रत्नत्रय अथवा उत्तम क्षमादि धर्म के इन्द्र अर्थात् प्रणयन करने वाले तीर्थंकरों के चक्र को प्राप्त कर मुक्ति को प्राप्त करता है। ऐसा निदान रहित पुण्य अन्त में क्रम से मोक्ष को देने वाला है। इसको द्रव्य पूण्य कहते हैं ||५||
सादमे पुरुषवेदं सम्मत्तं तक्क नाम । कोदमे लाय देवर् मानव रायु वाळ ॥ पोदमे पोस्कोडिनवम पुगळ चि मीकूट्र मन्नर् ।
घाति या तन्मै नल्गि यरवर शाकु मन्ना ॥६६॥ अर्थ-हे राजा वैजयन्त! यह पुण्य साता वेदनीय कर्म, पुरुष वेद, सम्यक्त्व, शुभ नाम कर्म, उच्च गोत्र, देवायु, सम्यग्ज्ञान, यश, कीर्ति तथा सुख को देने वाला चक्रवर्ती पद का आधिपत्य सापद को देता है ।
भावार्थ-कुछ लोग केवल निश्चय नय को लेकर व्यवहार नय को बिल्कुल गौरण करके मोक्ष प्राप्ति का साधन बतलाते हैं तथा अध्यात्मप्राप्ति करना चाहते हैं । परन्तु जैन धर्म में निश्चय और व्यवहार दोनों नयों के अवलम्बन से मोक्ष की प्राप्ति माना है। व्यवहार
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