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मेरु मंदर पुराण
करना बडा धर्म है । और राजा पूज्य भी होता है जिस प्रकार तपस्वी को शास्त्र का अच्छा ज्ञान होता है तो उसका तप भी पूज्य होता है । इसं.अपेक्षा से यदि देखा जाय तो पूज्य राज्य भी है । उससे भी पूज्य तप है। परन्तु राज्य को छोडकर यदि कोई तप करे तो और भी पूज्य समझा जाता है । किन्तु तपस्वी होकर फिर राजा बनना चाहे या राज्यपद पर बैठ जाय तो वह पूज्य से भी अपूज्य हो जाता है। उसे वह भ्रष्ट हुवा निकृष्ट समझते हैं। तपस्वी को राजा भी शिर नमाते हैं। राज्यपद से इतना बड़ा पुण्य कर्म संचित नहीं हो पाता है; जिस से कि आगामी फिर भी राजानों को विभूति नियम से मिल जाय । क्योंकि राज्यपद के साथ मदमत्सर आदि दोष भी लगे रहते हैं, जिससे प्रात्मा अति पवित्र न रहकर मलिन हो जाता है। तप में यह बात नहीं है। जिस तप में कर्मों का निर्मूल नाश करके मोक्ष पद पाने की शक्ति विद्यमान है तो राज्यपद प्राप्त होना कौनसी बड़ी बात है ? तप से आत्मा परम पूज्य बन जाता है।
भावार्थ-विषय भोग तुच्छ हैं, दुःखों को पैदा करने वाले हैं। राजभोग सबसे बड़ा विषयभोग है। इसकी इच्छा भी उन्ही को होती है जो धन दौलत को अपने प्राणों से भी बडा समझते हैं, कामक्रोध अंधकार के जो प्राधीन हो रहे हैं।
किंतु जो जितेन्द्रिय हैं, प्रात्मा का कल्याण करना चाहते हैं, वे उस पर लात मारते हैं। इसी प्रकार राज्य को भी प्रात्मकल्याण करने वालों को हेय समझना चाहिये । इस राज्य के मूल में ही विषय भोग छिपा हुआ है व परंपरा से नरकादि चारों गतियों का कारण है। सदैव पाप का संचय करने का कारण है । विषय भोग की प्राप्ति के लिये यदि राज संपदा भी मिली तो उसको छोडकर बुद्धिमानों को तप ही करना चाहिये। तप ही सुख का का कारण है। तप से साक्षात् सुख को प्राप्ति होती है। राज से सुख व शांति नहीं मिलती है। परन्तु जैसे कोई व्यक्ति हाथी पर बैठा है तो सभी उसकी प्रशंसा करते हैं, यदि वही व्यक्ति हाथी पर से उतर कर गधे पर बैठ जाय तो लोग उसी को हीन दृष्टि से देखेंगे। उसी प्रकार पूज्य पद प्राप्त करने वाले संयम पद को प्राप्त कर तीन लोक के पूज्य बन जाते हैं, और यदि उसे त्याग कर पंचेन्द्रिय विषय में पड जायें तो लोग घृणा की दृष्टि से देखते हैं ! उसी प्रकार संजयंत मुनि की दशा हो गई थी ।। १३८ ।।
काक्षिय कलक्लि ज्ञान कविपिन पिरित्त पुक्कान् । मोलिई लुलग मेट्र, मळ बकुत्तै पेळित वैय् ॥ माक्षि पेट्रवन वै मदनक्के येडिमै याकु । मोक्षित्ता निदानतन्नं मनं कोलार मविइन् यिक्कार् ॥१३६॥
सम्यकदर्शन को नाश करके, सम्यक्ज्ञान रूपी प्रकाश को मिटा कर तथा सम्यक्चारित्र को गंवा कर इस चतुर्गति में भ्रमण कराने वाले दुःख को नाश करके सिद्ध लोक में रहने वाले सिद्धों के समान सुख को प्राप्त करने वाले सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राराधना से संजयंत मुनि च्युत होकर निदान शल्यसे मृत्यु को प्राप्त होकर धरणेन्द्र पद को प्राप्त हुए। यह ठीक है, क्योंकि जिस जीव के जिस समय जो परिणाम होते हैं उसी
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