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मेरु मंदर पुराण प्रांगव नुरुवंकाना वरुंदवन शेयंदनदो। वीगिय तवत्तिनान मेलिव्वरुवाग देना ॥ नोंगिय काक्षिदाय निदानत्तै निरैय निडान् । प्रोगियवुलगं वेडा दुमिकोंडा प्रोरुव नोत्तान् ॥१३४॥
उस समय धरणेन्द्र का वैभव परिग्रह, वहां के देवों की सुन्दरता, स्वरूप व ऐश्वर्य मादि को देखकर उन संजयंत मुनि ने सम्यक् दर्शन से रहित होकर निदान बंध कर लिया कि मैंने इस तपश्चरण के भार से जो तप किया है उस तप का फल अगले भव में मुझे ऐसा मिले कि इस धरणेन्द्र के समान ऐश्वर्य वैभव, तथा चन्द्रकांति वाला मै भी हो आऊँ । जैसे बंदर के गले में रत्नों का कंठा बांध दिया जावे तो वह मूर्ख उसका मूल्य न समझ कर तोड़कर फेंक देता है, उसी प्रकार संजयंत मुनि ने अब तक सारे वैभव को छोड़ कर अंतरंग व बहिरंग से सारे शरीर को कृश किया था, वही आज अपनी पचइन्द्रियों के लालच में पाकर तपस्या से धरणेन्द्र के समान फल की प्राप्ति की कामना करके अब तक के समस्त तपश्चरण के फल को ससार का कारण बना लिया, मोक्ष के देने वाले मार्ग से च्युत हो गया और मोक्ष मिलने वाले सुख को छोड़कर पचेन्द्रिय भोगों में लिप्त होकर दीर्घ संसार में फंसने का कारण बना लिया ।। १३४ ।।
प्ररुतवं तागि मेरुवन पवर्केलु मास तुरुं विडे तोंड्र मेनुम् । तुरु बिड तोंड, मेनुम् लुगळिनिन् चिरियरव ॥ ररुतव निवनिकंडा मास इल्लामै पेंड्रो। पेरुतव मावबंडर पिरवि वित्त तल लंडो ॥१३५॥
श्रेष्ठ तप ऐसे चारित्र भार को धारण कर उसके फल को तथा महान् मेरु पर्वत के समान कीर्ति को न पाकर तिल मात्र परिग्रह के मोह से वह अल्प गुरणी बना और वह संजयंत मुनि संसार रूपी कीचड में फंस गया। जैसे कोई किसान बीज का रक्षण करता है और उसका उपयोग नहीं करता उसी प्रकार संजयन्त मुनि ने कर्म रूपी बीज को नष्ट न करके उसे संसार का कारण बना लिया।। १३५ ।।
कनिदन कवळ कइल वैलुडन कळर वारै। मुनिदिधु कळिरु कोल्वार् मुत्तियै विळ कन्दु नीरार् ॥ मनन्दोळत्त रंदिडादे वाल कुळ तेच्चिर कोडं ।
सुनंगनै पोलु नीरार् माट्रिडै सुलुलु नोरार ॥१३६॥ जिस प्रकार महावत हाथी को अनेक प्रकार के पकवान बनाकर खिलाता है परन्तु हाथी सहज ही आकर उसको नहीं खाता है, अपितु महावत उसको पुचकार २ कर खुशामद कर २ के खिलाता है किन्तु वह अपने मन से नहीं खाता है और उसी हाथी की झूठन को
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