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मेरु मंदर पुराण
शुद्धि पोरेट्टिर टू यानोन्क्यायो पियोगी लूटू पत्तयुं तडुक्क बंगम् पदिनोंड्रिर् पथिड्रज्ञानं ॥ सिस पाणि रडिर से सिंवयं मुरुषिकइट्ठ । पतु मूंड्रारि निड़ किरिये पंइड्रिट्टा || १४५ ॥
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अर्थ- मन, वचन, काय, कृत कारित अनुमोदना, आरंभ, समारंभ आदि को त्याग कर एकादशांग पाठी ( द्वादशांग में दृष्टिवाद को छोड कर कुल ग्यारह अंग होते हैं) पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति इन तेरह प्रकार के चारित्र मग्न होकर संजयंत मुनि श्रात्मध्यान में लीन थे ॥१४२॥
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कायमा मरिण पेतै कडंदपिद मडंगळ पोलुं । वाम माविलंगु माड मनोगर पुश्तैशेंदे || भमिमा मराळि येत्तिर् पेरियव निडूं पोळ दिर । शाम माविलंगु मेरितानब नोरुवन् वंदान् ॥१४६॥
अर्थ - प्रत्यंत विकट जंगल से दूर महान् सुन्दर राजधानी थी । उससे संबंधित उसी के निकट भीमारण्य नामका एक वन था। उस वन में सिंह के समान तेजस्वी शूरवीर निःसंग वृत्ति को धारण करने वाले संजयंत मुनि ध्यान योग में मग्न थे । वहां कृष्णवर्ण वारण किये हुए एक विद्याधर रहता था ।। १४६॥
वि दंत नेवनन् विद्याधर वेदन् । मत्त दि पोल्वन् वानवडियाग || मुत्ततंदि मुइकुळर् शामं योड शेल्वान् । सित्तत्वं मिड़ि वन् मेड्रान् ॥१४७॥
अर्थ - उस विद्याधर का नाम विद्युद्दष्ट्र था । वह विद्याधरों का राजा था जो महान् क्रूर था । उसके दांत तीक्ष्ण तथा लबे होकर प्रकाशमान थे । इस कारण उसका नाम विद्युद्दष्ट्र था । उसका शरीर अति सुन्दर तथा केश बड़े लंबे और सुशोभित थे । एक दिन उसने अपनी विद्याधरी शामदेवी के साथ विमान में बैठकर श्राकाश मार्ग से आते समय जिस जंगल में संजयत मुनि ध्यान में खड़े थे, वहां उनके ऊपर से जाने लगा तो वह विमान वहीं प्रकाश में कीलित हो गया ।। १४७ ॥
मन्मे निड़ मादवर कोन्मी दोडादाई । विम्मेल विमानं कंडु वियपैति ।। पुण्मेल वेला रेडान पोपु गेंदाट्रान । कन्मेर् कंडान् कंबल शल्यि करिण याने ।। १४८ ।।
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