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॥ द्वितीय अधिकार ॥
मोळिवं नाल विनयं वट्टि लगोरु मून्ड, मेत्त । वेळटु सेंड लग दुच्चि यदनान् वैजयंत ॥ नविय निदानत्तोल जयंत नौवमर नाय कोळ ।
विळदन नोळिद वीरन् चरिते यान् विळव लुट्न् ।।१४०॥ अर्थ-वैजयंत मुनि के मोक्ष जाने के बाद उनके शरीर के पडे हुए नख, केश, मादि को केवल नमस्कार कर पुतला बना करके अग्नि कुमार देवों ने मुकटानल से दाह संस्कार किया, और उसकी भस्मी को अपने मस्तक पर लगा करके परिनिर्वाण पूजा करके चतुर्णिकाय देव अपने-अपने स्थान को चले गये। निर्दोष तपश्चरण करने वाले वैजयंत मुनि के निर्वाण कल्याणक के पश्चात उस स्थान को नमस्कार करके एकल बिहारी होकर निरतिचार प्रतों को पालन करते हुए सजयंत मुनि कायोत्सर्ग पूर्वक आत्म-ध्यान करने लगे ।।१४०।।
पंचगति गेटच परमन् ट्रन् चरम मूर्ति । कजलि शैदु वाळ ति शिरपयर्द मररपोनार् ॥ बंजमिरवत्तिनान् संजयंदनु वनंगि पोगि ।
यंजलिल कोळगे तांगि इरा पगल पडियनिडान् ।। १४१ ।। पर्थ-महातपस्वी संजयंत मुनि श्रेष्ठ गुण से युक्त थे। महातपस्वी मुनि जिस वन में तपश्चर्या करते थे उनकी तपश्चर्या के प्रभाव से उस वन के क्रूर व्याघ्र, सर्प व जंगली पशु अपने बैर भाव को छोड़ कर उन संजयंत मुनि के पास प्रेम से परस्पर खेला करते थे ।।१४१।।
मानकंड.न पुलिइन् कड़, मारिये मुलये युन्नुम् । मान् कंड.भारणे कंद्रम सिंगत्तिन् कंडोडाडुं ॥ ॐडिड, वाळं जाति यतोळि लोळिदं वुळ ळं।
तान् सेंड्र शांति माकुंवादमान ट्रन्म याले ।। १४२ ।। अर्थ-दोष रहित संजयंत मुनि के तप के प्रभाव से नेवला, सर्प, चूहा, मार्जार मादि प्राणी अपने बैर विवाद को छोडकर परस्पर प्रेम से रहने लगे। भील लोग जो शिकार के लिये इधर उधर घूमते थे उनके मन में भी दया के भाव पैदा हो गये और शिकार करने का त्याग कर दिया। वह सभी मुनि के तप का प्रभाव था। क्योंकि तपस्वी मुनि जहां २ विचरते हैं वहां २ क्रूर प्राणी भो अपनी क्रूरता को छोड कर विशुद्ध परिणामों को धारण करते हैं। शास्त्रों में ऐसे अनेक उदाहरण हैं। भगवान नेमिनाथ पूर्वभव में भील की पर्याय
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