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मेर मंदर पुराण मिट्टी का पिंड हो है। अथवा जो नर नारक आदि जीव की पर्याय है उसका उपादान कारण जीव ही है। इसी प्रकार घड़ी प्रादि का समय भी उपादान कारण काल ही होना चाहिये । यह नियम भी इसलिये है कि अपने उपादान कारण के समान ही कार्य होता है।
कदाचित् कोई ऐसा कहे कि समय प्रादि काल पर्याय का कारण काल द्रव्य नहीं है, किन्तु समय रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में मंदगति से परिणमनशील पुद्गल परमारणु उपादान कारण है तथा निमेष काल पर्याय की उत्पत्ति में नेत्रों के पुटों को अर्थात् पलक का गिरना व उठना उपादान कारण है। ऐसे ही घड़ी रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में सामूहिक रूप जल का कटोरा और पुरुष के हाथ आदि का व्यवहार उपादान कारण है। दिनरूप काल पर्याय की उत्पत्ति में सर्य का बिंब उपादान कारण है । ऐसा नहीं कि जिस प्रकार चावल रूप उपादान कारण से उत्पन्न भात पर्याय के उपादान कारण में प्राप्त गुणों के समान ही सफेद काला आदि वर्ण, अच्छी या बुरी गंध, चिकना अथवा रूखा आदि स्पर्श, मीठा आदि विशेष गुरण दीख पड़ते हैं वैसे ही पुद्गल परमाणु नेत्र पलक विघटन, जल कटोरा, पुरुष व्यापार आदि
र्य का विब इन रूप जो उपादान भत पदगल पर्याय है उनसे उत्पन्न हये निमेष घड़ी प्रादि में यह गुण नहीं दीख पड़ते, क्योंकि उपादान कारण के समान कार्य होता है, ऐसा समझना चाहिये।
विशेषार्थ-अधिक कहने से क्या लाभ? जो आदि तथा अन्त से अमूर्त है, रहित है, नित्य है, समय आदि का उपादान कारणभूत है तो भी समय आदि भेदों से रहित है और कालानुद्रव्य रूप है वह निश्चय काल है, और जो आदि तथा अन्त से सहित है समय घड़ी आदि व्यवहार के विकल्पों से युक्त है वह उसी द्रव्यकाल का रूप व्यवहारकाल है। सारांश यह है कि यद्यपि यह जीव काललब्धि के वश से विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव का धारक जो निज परम तत्व का सम्यक श्रद्धान, ज्ञान, प्राचरण और सम्पूर्ण भाव द्रव्य की इच्छा को दूर करने रूप लक्षण वाला, तपश्चरण रूप, दर्शन ज्ञान चरित्र तप रूप निश्चय चार पाराधना है, वह आराधना ही उस जीव को अनन्त सुख की प्राप्ति में उपादान कारण ही जानना चाहिये । उसमें काल उपादान कारण नहीं है। इसलिये वह उपादान कारणः हेय है । आचार्यों ने व्यवहार कालका विवेचन इस प्रकार किया है कि काल द्रव्य एक स्थान को छोड़ कर दूसरे स्थान में जाने को समय कहते हैं । वह समय असंख्यात समय मिलकर एक प्रावली होता है । असंख्यात प्रावली मिलकर उच्छवास होता है। सात उच्छवास मिलकर एक स्तोक होता है । सात स्तोक मिलकर एक लव होता है, ३८ लव मिलकर एक घड़ी होती है, दो घडी मिलकर एक मुहूर्त होता है, तीस मुहर्त मिलकर एक दिन होता है, १५ दिन मिलकर एक पक्ष तथा दो पक्ष मिलकर एक मास होता है। दो मास मिलकर एक ऋतु होती है, तीन ऋतु मिलकर एक अयन होता है। दो अयन मिलकर एकवर्ष होता है। पांच वर्ष मिलकर एक युग होता है। ८४ हजार वर्ष मिलकर एक पूर्व होता है। असंख्यात पूर्व मिलकर एक पल्य होता है । दश कोडाकोड़ी पल्य मिलकर एक सागर होता है। इस प्रकार काल के अनन्त भेद हैं । समय कम होने वाला कोई काल भेद नहीं है ।।१४।।
अरुडेळि वार्वम् सिदै येळगिय निगळ चिज्ञानं । पोस्वरु तवत्ति नालु पुरिणदना मुइरै पुक्कु ।।
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