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मेरु मंदर पुराण
[८१ संसार में पुत्र मित्र बन्धु बांधव हैं सब स्वार्थी हैं, पुण्य के उदय से यह सब सामग्री मुझे प्राप्त हुई है । पाप के उदय में कोई साथ नहीं देते । केवल भगवन ही शरण हैं और कोई शरण नहीं है । इस प्रकार राजा वैजयंत ने कुमार संजयंत को उपदेश दिया ।।१११।।
इरंदनपिरवि मेना ळे न्नुदर् करियतम्मुट । करंदु कोंडइरै युन्नु कालन् वाय पट्ट पोळ दुं ।। पिरंदु नान् गति कनागिर् पेरंदुय रुळक्कुं पोळ दुं ।
तुरंदिडा विनेगळं डि तुनै पिरिदिल्ले कंडाय ।। ११२ ॥ इस प्रकार अनादि काल से अनेक योनियों में जन्म मरण करते आए हैं उनकी गिनती मैं कहने में असमर्थ हूं। इस संसार में यमराज़ नामक कर्म रूपी शत्रु द्वारा इस आत्मा को खींचकर चारों गति में डालते समय वहां होने वाले असह्य दुखों से छुड़ाने वाला कोई स्नेही व बन्धु नहीं है। केवल एक धर्म ही सखा है। ऐसे समय में और कोई मखा सहायक नहीं है । कहा भी है "धर्मः सखा परमः परलोकगमने" अर्थात् परलोक में जाते समय धर्म ही एक बन्धु है और कोई सहाई नहीं है ।। ११२ ।।
घातिग नान्गुं वींद कनत्त ळे कानळ पाडि । लादियाय पिरि दिनाय बंडिडु मनंद नानमै ।। योदिनोर वगैनाद लुइरिनान् मुडिंद मुन्ने ।
घातियामेघं सूळद कविरेन निड़ कड़ाय ॥ ११३ ॥ विभाव परणति द्वारा होने वाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन घातिया कर्मों को अपने शुद्ध प्रात्म स्वभाव के एकान्त ध्यान से नाश करते ही आत्मा में अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति होती है । यह अनन्त चतुष्टय प्रात्म शक्ति से प्रात्मा में उत्पन्न होते हैं । मेघ पटल जिस प्रकार सूर्य पर छा जाता है उसी प्रकार अनादि काल से प्रात्म रूपी सूर्य के ऊपर यह चार घातिया कर्म आच्छादित हुए हैं। अब इन घातिया कर्मों का उपशम होने से प्रात्म रूपी सूर्य जागृत होकर अपने प्रकाश से अपने निज स्वरूप को अनुभव करने लगा है ।। ११३ ।।
कुद्र मोर मंड, नान्गु गतिगळिर पोरिगळ दिर् । पट्रिय कायमारिर् पळविन तिरिपोरेळिर् ॥ सुट्रिय विनयंगलिट्टीर ट्रोट्रिय सुत्ति कडाय ।
कटवर् कडक्क वेन्नु माटिदु कडिको डारोय ।। ११४ ।। हे संजयंत कुमार ! उत्तम सम्यकदष्टि ज्ञानी लोग उत्तम नारित्र को धारण करने को भावना भाते हैं। और मिथ्यादृष्टि जीव राग द्वष मोह से पंचेद्रिय विषयों में मग्न होकर चारों गतियों में भ्रमण करते हैं । तथा इन पंचेद्रिय विषय में मग्न हुवा जीव पृथ्वी, अप,
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