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मेरु मंदर पुराण
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मचिनुकिर में पूंडान् मन्नन् बैजयंत मॅड़े। तिन्मुर शरद पिन्न सिरप्पोडु सेंड, पुक्कु । पुष्णिय किळवन दृन्नि पुगंदडि परिणदु पौत्तीर् ।
पन्नावर पडिमम् कोंडार पार्थिवर् कुळात्तिनोडे ।। १२२॥ गिस समय राजा वैजयंत अपने पौत्र को राज्य भार देकर चलने लगे तो यह चर्चा सम्पूर्ण देश के राजा महाराजा तथा प्रजा में फैल गई। तत्पश्चात् वैजयंत, संजयंत
और जयंत ने जिनेन्द्र भगवान की पूजा के लिये प्रष्ट द्रव्य हाथ में लेकर भक्ति सहित समवसरण में प्रवेश किया, और स्वयम्भू तीर्थकर की तीन प्रदक्षिणा देकर उनकी स्तुति को और बडी विनय भक्ति के साथ भगवान की पूजा की और.खड़े होकर जिनेन्द्र देव से प्रार्थना की कि हे भगवन् ! हमने अज्ञान अथवा मिथ्यात्व के कारण अनादि काल से इस कर्म के निमित्त से संसार में निजात्म स्वरूप की प्राप्ति न होने के कारण अथवा इसका स्वरूप न समझने के कारण आज तक संसार में परिभ्रमण किया। अब हमारी प्रात्मा में इस संसार से विरक्ति उत्पन्न हो गई है और संसार दुःखों से छूट कर हम मुक्त होना चाहते हैं । आप नौका के समान हैं । हमको जिनेश्वरी दीक्षा दीजिए । तब मुनिराज ने तथाऽस्तु कहा और दिगम्बरी दीक्षा की अनुमति दे दी ॥१२२॥
मरिण मुडि कलिंग माल मरिहत्त न रणयकुंजि । परिणयोड़ परिनिडार पोरुमद याने योत्तार् ॥ गुणमरिण यरिणदु कंडा पण्णव कुळातक्कु पुक्का ।
रिणइला सित्ति नन्नाळ डिळवरसि मॅड़ दोत्तार् ॥१२३॥ तदनन्तर उन तीनों को नव रत्न जडित मुकुट-हार तथा सर्व प्राभरणों का त्याग कराया अर्थात् स बहिरंग परिग्रहों स्याग कराया, अट्ठाइस मूलगुणों का पालन कराया
और संक्षेप में मुनि धर्म पालने का उपदेश दिया। पांच समिति, पंच महाव्रत, एक भूक्त, विविक्त शय्यासन, स्थित भोजन मादि २.क्रियानों को समझाया। तीन गुप्ति, पांच समिति और पांच महाव्रत इन तेरह प्रकार से चारित्र पालन करने तथा केश सोंच और दन्त न धोने मादि का विवेचन किया। कहा भी हैं:
वद समिदिदियरोधो लोचावासयमचेलमण्हाणं । खिदिसमणमदतवरणं ठिदिभोयरणमेयभत्तं च ।।
- इस प्रकार संक्षिप्त में उनको पंच महाव्रत प्रादि २ का स्वरूप समझाया और तीनों ने केवलो भगवान स्वयंम्भू तोकर के समक्ष जिन दीक्षा धारण की। जिन दीक्षा धारण करने के पश्चात् वे तीनों मुनि ऐसे प्रतीत होने लगे जैसे मद से युक्त हाथी इधर उधर विचरते हैं। जिस प्रकार हाथी का महावत हाथी को खाना पीना देकर हाथी को वश में करता है उसी प्रकार यह तीनों मुनिराज अपने मदोन्मत्त मन को
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