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मेरु मंदर पुराण
[ ३३ अर्थ-उस खाई के मध्य फैला हुमा विशाल मैदान है । उस उन्नत भूमि को लांघ कर सिंह के समान अत्यन्त पराक्रमी शक्तिशाली देव भी उस नगर से पार जाने में समर्थ नहीं थे। उस नगर के चारों ओर दीवार (कोट) है । और पृष्कर नामक एक विशाल समुद्र है। मनुष्य के द्वारा उसका उल्लघन करना सर्वथा अशक्य है । अर्थात् मनुष्य के अन्दर उसके उल्लंघन करने की शक्ति नहीं है । जैसे मानुषोत्तर पर्वत को लांघकर मनुष्य नहीं जा सकता । वह इतना विशाल वीतशोक नामक नगर है।
भावार्थ-वीतशोक नगर के चारों ओर खाई के मध्य एक विशाल मैदान है। उसके चारों ओर रक्षार्थ सिंह के समान कोट हैं, जिसे महान् पराक्रमी देवता भी लांघकर नही जा सकते । अर्थात् जिस प्रकार कोई मनुष्य मानुषोत्तर पर्वत को लांघकर नहीं जा सकता उसी प्रकार इस वीतशोक नामक नगर को उलंघन करने में कोई भी समर्थ नहीं था। इस प्रकार अत्यन्त सुन्दर व शोभायमान वीतशोक नाम का नगर है ।।३०।।
दिक्कयं मलंगळ पोर् सिरदुनिड गोपुरंग । लोक्कुमाळीग निरकुलमलै गळोत्तन ॥ मिक्कमासनम् शक्त वीदि सीदेयादि यारन ।
चक्करंड्रन माळिगैयु मेरुवेन्नख्न्नदे ॥३१॥ अर्थ-वहां के गोपुर तथा उस वीतशोक नगर के चारों ओर रहने वाले हाथी ऐसे दीखते हैं कि जैसे छोटे २ पहाड़ तथा छोटे २ गोपुर ही हों। उस नगर में बने हुये कई मंजिल के ऊचे २ मकान व महल इस प्रकार प्रतीत होते थे कि मानों कुलपर्वत हों। उस नगरी की बड़ो २ गलियों से आने जाने वाले मनुष्य ऐसे प्रतीत हो रहे थे कि मानों सीता नदी को निर्मल धारा नित्य निरन्तर कलकल ध्वनि करती हुई.बह रही हो । अर्थात् उस गली से लोग नदी के
समान नित्य निरतर गमन करते हये दिखाई दे रहे थे। यानी वे रात दिन चलते रहते थे । राजा के राजमहल सुमेरु पर्वत के समान विशाल व सुन्दर प्रतीत हो रहे थे ।।३१॥
मुगिरकरणंगळ पोन्मलय मोयत्तयान पोन्मोयप्प । पगर्किडे कोडादसेंबोन् मालिगप्पडिदन ।। वगिरपुगय ळायनीर मदत्तरुवि पोंडून ।
तुगिर्करणंगळनगर् मदिमरुत्त डेक्कमे ॥३२॥ अर्थ-महा मेरु पर्वत को किसी बहुत बड़े हाथी ने घेर लिया हो और उससे सूर्य के चलने का मार्ग अवरुद्ध हो गया हो, इसी प्रकार अत्यन्त उन्नत और स्वर्णनिर्मित उस राज महल को मेघों के समूह ने घेर लिया था । चन्दन व धूप का धुप्रां स्वाभाविक रूप से जिस प्रकार फैल जाता है उसी प्रकार राजमहल के ऊपर मेघ उमड़ रहे थे। उन मेघों से जो जल की बून्दें नीचे गिर रही थीं वह ऐसी मालूम पड़ रही थी कि मानों मतवाले हाथी का मद झर रहा हो । उस नगर में ध्वजा के समूह ऐसे प्रतीत हो रहे थे कि मानों चन्द्रमा के अन्दर रहने वाले कलंक को साफ कर रहे हों । ध्वजा की उन्नत ऊंचाई इतनी अधिक हो गई थी कि मानों वह चन्द्रमंडल तक पहुँच रही हो ॥३२॥
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