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मेरु मंदर पुराण
स्मरण किया जाता है उसी प्रकार वीतशोक नगर की सारी प्रजा उस राजा की स्तुति करती रहती थी ॥४४॥
नल्ल तोल्कुल तरस नादलार । सोल्लसंगयु सोर वैदामैयारं ॥ पुल्लिनार् पुगळ मादु पूमगळ ।
सोल्लिन् सेल्वियु सुलिवुनेंगिये ॥४५॥ अर्थ-परम्परा से श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न हुये चक्रवर्ती का वचन और उनके द्वारा होने वाले सत्कर्म अत्यन्त सुदृढ़ थे और कीर्ति देवी, सरस्वती तथा लक्ष्मी देवी प्रेम से युक्त होकर उनका आश्रय ग्रहण किये हुये थीं।
भावार्थ-वह राजा परम्परा से चले आवे उत्तम कुल में जन्म धारण किये हुये था मौर शीलवंत तथा चक्रवर्ती था। पांचों पापों से रहित, सत्यवादी व निश्चल मति वाला था। उसके द्वारा किये जाने वाले सभी कार्य अनुकूल हो जाते थे । उनकी कीर्ति चारों ओर फैली हुई थी। इस कारण उस गुणवान् सत्यवान् राजा के पास सरस्वती, कीति तथा लक्ष्मी दवी माश्रय में थी ॥४५॥
कर्पगं तनयनै कामर्वल्लि पोल् । वेट्रि वेल वेदने वेळ विनीमै यार् ॥ पोर्प मैंदे दिय कोडियनार् पुनरन् ।
तर्पुनीर कडलिडे येळ दुनाळिदे ॥४६॥ अर्थ-कल्पवृक्षों से सम्बन्धित कामलता के समान जय को प्राप्त हुये प्रायुध को धारण करने वाला राजा वैजयन्त सुन्दर शरीर को धारण किये हुये था। उनका शरीर ऐसा मालूम होता था कि चित्रकार द्वारा चित्रित किया गया मानों कोई पुतला ही हो। इस प्रकार उनका शरीर अत्यन्त शोभायमान था । और पुष्पलता के समान शोभने वाली स्त्रियों के साथ पाणिग्रहण करके भोग-विलास में स्नेह पूर्वक प्रानन्द मनाता था अर्थात् देवों के समान इन्द्रिय सुखों के भोगने में मग्न था।
भावार्थ-कल्पवृक्ष में कामलता के समान जय को प्राप्त किये हुये और हाथ में मायुध धारण किये पुष्पलता के समान सुन्दर शोभनेवाली स्त्रियों के साथ भोग विलास में होने वाले प्रानन्द में मग्न तथा जनता की दृष्टि को कामदेव के समान शोभने वाली प्रजा के अत्यन्त प्रिय थे ।।४६।।
पूविर् कोंबु पुगळं पडिनल वडिविन मा। देसिष्पट्टम् पेट्रनलिल्लां तिरुबेंबाल । काविक्कण्णाळ वरनक्कमळ तळियायिमन् । कावर् कोमा नियनुनाळार कविन् पेट्टाळ ॥४७॥
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