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मेरु मंदर पुराण
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मिलकर ही मोक्ष के कारण कहे गये हैं। यदि इनमें से एक भी अंग की कमी हुई हो तो कार्य सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकते । सम्यग्दर्शन के होने से ही ज्ञान और चारित्र फल को देने वाले होते हैं । इसी प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के रहते हुये ही सम्यग्ज्ञान मोक्ष का कारण है । सम्यग्दशन और सम्यग्ज्ञान से रहित चारित्र कुछ भी कार्यकारी नहीं होता, किन्तु जिस प्रकार अंधे पुरुष का दौड़ना उसके पतन का कारण होता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान से शून्य पुरुष का चारित्र भी उसके पतन अर्थात् नरकादि गतियों में परिभ्रमण का कारण है। इन तीनों में से कोई तो अलग-अलग एक-एक से मोक्ष मानता है और कोई दो से मोक्ष मानता है। इस प्रकार अज्ञानी लोगोंने मोक्षमार्ग के विषय में छह प्रकार के मिथ्या नयों को कल्पना को है, परन्तु उपर्युक्त कथन से उन सभी का खंडन हो जाता है ।
भावार्थ – कोई केवल दर्शन से, कोई केवल ज्ञान से, कोई केवल चारित्र से, कोई दर्शन और ज्ञान दो से, कोई दर्शन और चारित्र इन दो से और कोई ज्ञान तथा चारित्र इन दो से मोक्ष मानते हैं । इस प्रकार मोक्ष मार्ग के विषय में छह प्रकार के मिथ्या नय की कल्पना करते हैं, परन्तु उनकी यह कल्पना ठीक नहीं है, क्योंकि तीनों की एकता से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है । जैन धर्म में प्राप्त, आगम तथा पदार्थ का जो स्वरूप कहा गया है उससे अधिक वा कम न तो है, न था और न आगे ही होगा। इस प्रकार प्राप्त आदि तीनों के विषय में श्रद्धान की दृढ़ता होने से सम्यग्दर्शन में विशुद्धता उत्पन्न होती है । जो अनन्त ज्ञान आदि गुणों से सहित हो, घातिया कर्म रूपी कलंक से रहित हो, निर्मल आशय का धारक हो, कृतकृत्य हो और सबका भला करने वाला हो वह प्राप्त कहलाता है। इसके सिवाय अन्य देव प्राप्ताभास कहलाते हैं । जो प्राप्त का कहा हुआ हो, समस्त पुरुषार्थों का वर्णन करने वाला हो और नय तथा प्रमारणों से गंभीर हो उसे आगम कहते हैं। इसके अतिरिक्त असत्य पुरुषों के वचन श्रागमाभास कहलाते हैं । जीव और अजीव के भेद से पदार्थ के दो भेद जानना चाहिये । उसमें से जिसका चेतना रूप लक्षण ऊपर कहा जा चुका है और जो उत्पाद, ब्यय तथा ध्रौव्य रूप तीन प्रकार के परिरणमन से युक्त है वह जीव कहलाता है । भव्य-अभव्य और मुक्त इस प्रकार जीव के तीन भेद कहे गये हैं। जिसे प्रागामी काल में सिद्धि प्राप्त हो सके उसे भव्य कहते हैं । भव्य जीव स्वर्ण पाषारण के समान होता है अर्थात् जिस प्रकार निमित्त मिलने पर सुवर्ण पाषाण प्रागे चलकर शुद्ध सुवर्ण रूप हो जाता है उसी प्रकार भव्य जीव भी निमित्त मिलने पर शुद्ध सिद्धस्वरूप हो जाता है । जो भव्य जीव से विपरीत है अर्थात् जिसे कभी सिद्धि की प्राप्ति न होसके उसे अभव्य कहते हैं । प्रभव्य जीव अन्ध पाषाण के समान होता है अर्थात् जिस प्रकार अन्धपाषारण कभी सुबर्ण रूप नहीं हो सकता। उसी कार अभव्य जीव कभी सिद्ध स्वरूप नहीं हा सकता । प्रभव्य जीव को मोक्ष प्राप्त होने की सामग्री कभी प्राप्त नहीं होती । और जो कर्मबंधन से छूट चुके हैं, तीनों लोकों का शिखर ही जिनका स्थान है, जो कर्म कालिमा से रहित हैं और जिन्हें अनन्त सुख प्रभ्युदय प्राप्त हुआा है ऐसे सिद्ध परमेष्ठी मुक्क्त जीव कहलाते हैं । इस प्रकार हे बुद्धिरूपी धन को धारण करने वाले वैजयन्त ! मैने तुम्हारे लिये संक्षेप से जीव तत्व का निरूपण किया है। अब इसी तरह अजीव तत्व का भी निश्चय कर; धर्म अधर्म श्राकाश और पुद्गल इस प्रकार प्रजीव तत्व का पांच भेदों द्वारा सविस्तार निरूपण किया जाता है। जो जीव भोर पुद्गलों के गमन में सहायक कारण हो उसे धर्म कहते हैं और जो उन्हीं के स्थित होने में सहकारी कारण हो उसे प्रधर्म कहते हैं । धर्म धौर मधर्म ये दोनों ही पदार्थ अपनी इच्छा से गमन करते और
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