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मेद मंदर पुराण
प्रमाण धारण किये हुये है । केवली समुदुघात के चार भेद हैं । दण्ड, कपाट, प्रतर, लोकपूर्ण । लोकपूर्ण समुद्घात के समय इस प्रकेले जीव में तीन लोक को व्याप्त करने की शक्ति है । यह जीव प्रत्यन्त सूक्ष्म तथा मोटे रूप को धारण करता है, परन्तु मात्मा शरीर के निमित्त कारण छोटा-बड़ा कहलाता है। यदि निश्चय नय की दृष्टि से देखा जाय तो मात्मा न छोटा है प्रौर न बडा है; लोक प्रमारण है । यह प्रात्मा शरीर का निमित्त पाकर छोटा-बड़ा शरीर धारण करता है । प्रात्मा छोटा-बड़ा नहीं है । इसका अधिक विवेचन पदार्थसार ग्रन्थ समझ लेना चाहिये ॥ ६१ ॥
पोरिगळा पुलतेळ भोगं तुइप्पुळि । इरुगिय विनैगळु किरैव नाय पिन् । पिरिडोरु पिरप्पिनोविनं पर्यात्तिनु । किर बना मिटु उहरिय के वर्ष मे ॥८२॥
अर्थ-जीव पदार्थ इन्द्रिय विषय के भोगों को भोगता है । राग-द्वेष मोह से धनुभव के समय में उस राग परिणति के द्वारा आकर ग्राश्रय करने वाले कर्मों का कर्त्ता होकर भाप ही उन कर्मों के बंध का कारण होकर भागे चलकर उस कर्म के फल का अनुभव करने बाला होता है ।
भावार्थ - जीव इन्द्रिय विषयक भोगों को राग द्वेष मोह से अनुभव के समय में उस राग परिणति के द्वारा ग्राकर श्राश्रय करने वाले कर्मों का कर्त्ता होकर आप ही उन कर्मों के बंध का कारण होकर श्रागे चलकर उस कर्म के फल का अनुभव करने वाला होता है । इस प्रकार जीव भोर पुद्गल का सम्बन्ध समझना चाहिये ।
द्रव्य संग्रह में कहा हैः
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पुग्गलकम्मादीणं, कत्ता ववहारदो दु रिणच्चयदो । चेदरणकम्मारगादा, सुद्धरणया सुद्धभावारणं ॥ ववहारा सुहदुक्खं, पुग्गलकम्मप्फलं पभु जेदि । आदा रिणच्चययदो, चेदरणभावं खु प्रादस्स ॥
जीव व्यहार नय से पुद्गल कर्म आदि का कर्त्ता है । अशुद्ध निश्चय नय से चेतन रागादि भाव कर्मों का कर्त्ता है। शुद्ध निश्चय नय से शुद्ध भावों का कर्ता है । इसी तरह जीव व्यवहार नय से पुद्गल कर्मों का फल सुख दुःखों को भोगता है । निश्चय नय से आत्मा अपने शुद्ध भावों को भोगता है ॥८२॥
नाट्र मुं सुवयु मूरुं वन्नमुं तन्मैदागि । पोट्रोल् पूरित्तल बार लुडया पुर्गसंदान् ॥
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