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मेरु मंदर पुराण कालने कवि वेदन करि नगर् कुरुगि कमा।
मेलिळिनिरंजि पुक्कान विषबर किरंग नोत्तात् ॥५६॥ मर्थ-प्रचण्ड वायु के वेग से जिस प्रकार समुद्र तरंगें कलकलाहट करती रहती हैं उसी प्रकार उस नगर के सारे स्त्री पुरुष चंदन केशर पुष्प मादि प्रष्ट द्रव्य की सामग्री हाथ में लेकर अत्यन्त मानन्द से चलने लगे और राजा वैजयन्त मपनी पटरानी सहित हाथी पर सवार होकर कर्मरूपी यमराज को तप द्वारा नष्ट करके प्रात्मरूपी साम्राज्य को प्राप्त किये हुने भगवान स्वयम्भू को देखकर हाथी से नीचे उतरा और भगवान के दर्शनार्थ समवसरण में क्या । जाते समय बह ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे देवलोक से साक्षात् देवेन्द्र ही माया हो। यह सब पूर्वभव में किये हुये पुण्य का ही प्रभाव था। पुण्यहीन पुरुष को ऐसा वैभव नहीं प्राप्त हो सकता ।।५।।
वानविर् कडंदु मान पोउत्तं वनगि बाळ ति । मानत्त बत्तं यदि बलंकोंडु पनि पोगि । मारणमेल्ला' मोत्तुमलर् मली किंडंगु पित्रा।
मानमिल्लाद वल्लिवनत्ति मलर् के यदि ॥६॥ मर्य-इन्द्र धनुष के समान धूलि नाम की शाला की वेदी का उल्लंघन करके रहने वाले बलिपीठ को नमस्कार व स्तुति करके मानस्तम्भ के पास आकर तीन प्रदक्षिणा दी। तत्पश्चात् सुगंधित पुष्पों से भरे हुये लतावन में जाकर उसमें रहनेवाले मर्यादा रहित पुष्पों को तोड़कर अपने हाथों में लेने पर भी कुछ लोग फल व पुष्पों को भगवान की पूजा में नहीं लगाते, बल्कि मर्यादित फल-फूलों को ही लगाते हैं। इस विषय में मष्टपाड ग्रन्थ में प्राचार्य कुन्द-कुन्द ने कहा भी है कि:
यावन्ति जिनचैत्यानि विद्यन्ते भुवनत्रये । तावन्ति सततं भक्त्या त्रिःपरीत्य नयाम्यहम् ॥ फुल्ल पुकारइ वागियहि कहियो जिणहं चंडोसि । धम्मो को वि न प्रावियउ कंपिय धरणि पडेसि । केणय वाडीवाईया केणय वीणिय फुल्ल ।
केणव जिगह चडाविया ए तिष्णि व समतुल्ल ॥ जिन मन्दिर व जिनागम में षट्कायिक जीवों का हितकारक स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त कराने वाला कहा है । चैत्यगृह के निर्माण के लिये जो मिट्टी खोदी जाती है वह काय योग के द्वारा चैत्यगृह का उपकार करके पुण्यकर्म का उपार्जन करती है और उस पुण्यकर्म द्वारा परम्परा से स्वर्ग तथा मोक्ष को प्राप्त होता है । जो जल चैत्यगृह के काम में आता है वह भी मिट्टी की तरह पुण्य को प्राप्त होता है । जो अग्नि चैत्य गृह के निमित्त जलाई जाती है वह थी उसी तरह पुण्य को प्राप्त होती है । जो वायु चैत्यगृह के निमित्त प्रग्नि को प्रदीप्त
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