________________
२० ]
मेरु मंदर पुराण
भावार्थ - सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष धन संपत्ति और भव को सत्पात्रों को दान देकर उसके प्रभाव से चक्रवर्ती तीर्थंकर, इन्द्र, नागेन्द्र पद तथा मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त कर लेते हैं । अर्थात् ज्ञानी जीव विषय कषायों से विरक्त होकर चारित्र को धारण करके उसी भव से मोक्षपद प्राप्त कर लेते हैं ।
भू महिला कण्णाइ लोहाहि विसहरं कपि हवे | सम्मत्तरगाण वेरग्गो सहमतेण जिरणुद्दिट्ठ ७६॥
भावार्थ- स्वरर्णादि अलंकारों से अलंकृत राजमहल और स्त्री आदि पदार्थों के लोभ रूपी सर्प के विष का निवारण करने के लिये सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान तथा वैराग्य रूपी अमोघ मंत्र ही फलदायक है, ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।
पुव्व पचें दिय तर मरणुवचि हत्थायमु डाउ |
पच्छा सिर मुंडाउ फिवगइ पहरणायगा होइ ||८०||
भावार्थ - सर्वप्रथम अपने पांचों इन्द्रियों को निग्रह करना चाहिये । तत्पश्चात् क्रम से मन वचन काय द्वारा अपने शरीर को वश में करना चाहिये । फिर सिर का मुंडन करना चाहिये, इससे भव्य जीवों को मोक्ष की प्राप्ति होती है || ८० ॥
पतिभत्ति विहीण सदी भिच्चोय जिरण समय भत्ति हीरण जई । गुरुभत्ति बिहीण सिस्सो दुग्गइ मग्गाणु लग्गणोरियमा ॥८१॥
भावार्थ - पति की भक्ति से रहित स्त्री, स्वामी की भक्ति से रहित सेवक, शास्त्र की भक्ति से रहित साधु तथा गुरू की भक्ति से रहित शिष्य महान् निन्द्य और दुर्गति का पात्र होता है ।
Jain Education International
इस प्रकार उस गंधमालिनी देश में श्रावक और श्राविकायें कर्म निर्जरा करने के लिये सदैव दान धर्म में मग्न रहती हैं ॥ १० ॥
मारिण नल वरं बोन् वरंड्रिमा तिर सेंदुम् । तुनिनल बैळ कोंबुस तोगयु मयिरुमेदि ।। बनिग नल्लोरु बन् पोल बयलग मत्तवारु । पनिविला पळकोडंगि निर्लयन परदंदंड्रे ॥। ११॥
गंध मालिनी देश की नदियों का वर्णन
अर्थ - जिस प्रकार रत्न, हीरे, मोती, पन्ना वैडूर्य मरिण, माणिक्य स्वर्णादि के आभूषण सदा जगमगाते रहते हैं उसी प्रकार बड़े वेग से बहने वाली वहां की नदियों का अत्यन्त निर्मल नीर निरन्तर कल-कल ध्वनि करता रहता है। जिस प्रकार एक व्यापारी अनेक प्रकार के स्वर्ण, चांदी, चन्दन, हाथी दांत, मोरपंख, चमरी गाय के बाल आदि सामग्री
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org